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समीक्षार्थ : लक्ष्मण को मृत्युदंड का आध्यात्मिक मतलब
मुकेश आनंद
बहुत कम लोगों को मालूम है की राम राज्य में लक्ष्मण को मृत्युदंड मिला था और उसके बाद ही उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। इस घटना का बहुत ही बड़ा आध्यात्मिक महत्व है और इसीलिए मैंने इस विषय को चुना ताकि इसके माध्यम से मृत्यु और जीवन पर गंभीरता से विचार किया जा सके।
मृत्यु पर विचार करने से पहले आवश्यक है कि हम यह देख ले कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह आखिर है क्या। यह सत्य है कि हम में से ज्यादातर लोग, या लगभग सभी, मृत्यु की चर्चा करने से बचते हैं या इसको खराब समझते हैं। जबकि मृत्यु एक शानदार चीज है। लेकिन मृत्यु को समझने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने जीवन को समझ लें और इस जीवन का अर्थ अगर हम जान जाते हैं तभी हम उसकी समाप्ति यानी मृत्यु का मतलब भी समझ सकते हैं, उसकी तैयारी कर सकते हैं।
जीवन मतलब क्या- साधारणतया जीवन से हम लोग मतलब की चीजों से समझते हैं, जो स्मृति में हमारा हिस्सा है समाज के अनुसार जो हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, या जो भी चीज हमने अर्जित की है हमने अपने जीवन में, हर चीज की और इन सब के साथ जो हमारे सगे संबंधी रिश्तेदार मित्र की स्मृतियां हैं- इन सबको मिलाकर जीवन समझने की परंपरा है।
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारा जीवन सिर्फ इतना ही है या इसके अलग भी कुछ है। यह बात तो निश्चित यह जो स्मृतियां हैं, यह अंततः समाप्त हो जाएंगी। व्यक्ति चाहे कितनी भी मृत्यु के बारे में बात ना करें या डर जाए, परंतु उसे अच्छी तरह मालूम है कि एक न एक दिन इसकी समाप्ति होनी निश्चित है। परंतु अंत के बारे में कोई भी निरपेक्ष भाव से चर्चा नहीं करना चाहते। इसे खराब समझते हैं, इससे बचना चाहते हैं। यही कारण है कि हम मैं से ज्यादातर लोगों के लिए मृत्यु का समय बहुत ही दुखदाई होता है।
आध्यात्मिक दुनिया में कई बार इस घटना की ओर इशारा किया गया जिसमें लक्ष्मण का देह त्याग, परीक्षित का देहांत और यहां तक कि राम का महाप्रयाण इसी बात की ओर इंगित करते हैं।
सच तो यह है कि हम इन स्मृतियों के आधार पर अपनी एक छवि का निर्माण करते हैं और जीवन पर्यंत उस छवि के आधार पर ही अपना जीवन जीते हैं शायद ही कभी वास्तविकता के आधार पर हम अपने आपका सामना करते हैं।
यह सामना तभी हो सकता है, जब हम अपनी इन सभी स्मृतियों से छुटकारा पालें या यूं कहें की इन समितियों के लिए हम मर जाएं। इस तरह यह संभव है कि हम हर दिन या एक तरह से बोले तो हर क्षण अपनी पुरानी स्मृतियों के लिए, अपनी पुरानी छवि या मूर्ति जाए इमेज के लिए मृत्यु को प्राप्त हो जाएं। इस तरह हम प्रतिदिन एक नया जीवन पाएंगे और अपनी पुरानी छवि के लिए एक नई मृत्यु को। यह सत्य है की पुरानी का अंत में ही नए का आरंभ असंभव है। इसी को अध्यात्म और मूल रूप से मृत्यु कहते हैं।
उपनिषद काल में इस बात का वर्णन है की एक परंपरा थी कि यज्ञ के रूप में, कि व्यक्ति कुछ नियत समय के बाद अपना सर्वस्व दान कर देता था और एक नया प्रारंभ करता था। नचिकेता की कहानी मैं इस परंपरा और यज्ञ का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी कहानी में नचिकेता का मृत्यु के देवता धर्मराज से संवाद निहित है, जो आध्यात्मिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण है।
लक्ष्मण के मृत्युदंड वाली घटना पर वापस आते हैं। कहां जाता है की राम से मिलने स्वयं काल आया था और मिलने की शर्त यह थी उन दोनों की बातचीत के बीच में जो भी व्यक्ति आएगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। लक्ष्मण को इस बात की जिम्मेदारी दी गई कि कोई भी व्यक्ति इस बैठक के बीच में नहीं आ पाए। उसी समय ऋषि दुर्वासा अपना व्रत पूर्ण कर राम के हाथों अपना व्रत तोड़ने की इच्छा से राम से मिलने आए और लक्ष्मण के मना करने पर पूरे रघुकुल को श्राप देने और भस्म करने की धमकी देने लगे। इस से व्याकुल होकर सिर्फ अपना ही नाश निश्चित समझ, समस्त रघुकुल की रक्षा हेतु, लक्ष्मण उस वार्तालाप के मध्य राम के समक्ष उपस्थित हुए। तत्पश्चात वचन भंग और अपने कार्य को पुराना करने के लिए लक्ष्मण को प्राण दंड दिया गया। बहुत विचार विमर्श के बाद और लक्ष्मण के राज्य के प्रति किए गए कर्तव्यों के आधार पर यह निर्णय लिया गया कि राम लक्ष्मण का त्याग कर दें, क्योंकि क्या करना भी एक तरह से मृत्युदंड के बराबर है।
आध्यात्मिक दृष्टि से, बाकी सभी घटनाओं के इतर, जो मृत्यु संबंधी चर्चा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। यानी यह बात कि अगर किसी का त्याग कर दिया जाए तो इसका मतलब उसको मृत्युदंड देने के बराबर होता है। त्याग का मतलब होता है उन स्मृतियों का त्याग जो उसके साथ जुड़ी हुई है। और यही मृत्यु का असली रहस्य है। जब हम यह समझ जाते हैं जिसे हम जीवन कहते हैं, वह सब बस इन्हीं स्मृतियों का एक पुलिंदा है, जिसको हम ढोए चले जाते हैं।
यह बहुत गंभीर विषय है। मूर्ति या इमेज हर धर्म का हिस्सा है, जिसे कोई स्वीकार नहीं करता। सभी धर्मों में इस मानसिक इमेज से बचने की सलाह दी गई है। यह इमेज मूर्ति, स्थान, विधि या पूजा विधि का समग्र नाम है।
अल्प बुद्धि, जिनको आध्यात्मिक ज्ञान पूर्ण नहीं है, जिसमें मैं भी शामिल हूं, सिर्फ भौतिक मूर्ति को मूर्त समझते हैं।
मूर्ति एक मील के पत्थर तरह उपयोग होनी चाहिए। लक्ष्य की तरह नहीं।
बाकी उधार लिए , ज्ञान न से बहस करते रहने का कोई अंत नहीं है।
असली प्रश्न यह है कि मृत्यु से पहले हम उस शाश्वत सत्य का साक्षात्कार कर पाएंगे और अपनी मन:कल्पित मूर्ति या उसके विरोध के पार जा पाएंगे।
सत्य यही है कि मूर्ति के अंध पूजन करने वाले और अंध विरोध करने वालों में कोई विशेष अंतर नहीं है।
असल में हम जो भी मूर्ति बनाते हैं वह हमारी अपनी स्मृतियों से ही प्रेरित होता है। चाहे वह बाहरी मूर्ति हो या हमारी आंतरिक। इन सभी छवियों, स्मृतियों और मूर्तियों से परे जाना सांसारिक रुप से मृत्यु है और आध्यात्मिक जीवन से आनंद के साथ जीना।
मृत्यु एक आनंददायी क्षण होना चाहिए और यह तभी संभव है जब हमने अपने जीवन को पूर्णता के साथ जिया हो। यही जीवन की सार्थकता है, संभवतः मोक्ष भी।
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