आओ   मिलकर   सोचें  :

हम बदलते क्यों नहीं ?

मुकेश आनंद

(यह लेखक के विचार हैं और एक वार्तालाप मात्र है, कोई उपदेश या निर्देश नहीं। पाठक इन विचारों को खंडित करने, आलोचना करने और गलत मानने के लिए स्वतंत्र हैं। )

सदियों और हजारों साल से मानव अपने आप को बदलने, पूरी तरह परिवर्तित करने और चरम ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करता रहा है। प्रामाणिक रूप से हर धर्म में कुछ ऐसे व्यक्ति जरूर हुए हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह सांसारिक बंधनों से मुक्त व्यक्ति थे। इसके बाद उन्होंने दुनिया को सुखमय बनाने का प्रयास किया।

लेकिन इन सबके बावजूद मानव पहले से ज्यादा दुखी, परेशान, हिंसक और बेचैन होता जा रहा है। तकनीकी स्तर पर हमने बहुत प्रगति की है, लेकिन आंतरिक रुप से हम आज भी उतने ही दुखी और परेशान हैं जितने शायद आदिमानव रहे होंगे। मानव की मूल समस्या जैसे लालच, ईर्ष्या, दुख, युद्ध, शाब्दिक हिंसा, शारीरिक हिंसा और अशांति जैसी समस्याएं जस की तस हैं, हालांकि उनमें थोड़ा सा परिवर्तन समयानुसार हुआ है। यह परिवर्तन इतना मामूली है कि इसे किसी भी तरह विकास नहीं कहा जा सकता।

इन सब को देखते हुए यह प्रश्न बार-बार उत्पन्न होता है कि आखिर मनुष्य परिवर्तित क्यों नहीं हो पाता और पीढ़ी दर पीढ़ी वैसा ही क्यों बना रहता है। स्त्रियों के प्रति पूर्वाग्रह, अपने से कमजोर या नीचे माने जाने वाले जातियों, संप्रदाय, धर्म के लोग एक दूसरे को हेय दृष्टि से देखते हैं। ‌ यह अपने आप में एक बहुत बड़ी हिंसा है, क्योंकि इसीसे भयानक हिंसा और युद्ध के बीज बोए जाते हैं। ‌

इस समस्या का एक प्रमुख कारण, जो प्रतीत होता है, यह है कि हम अपने आंतरिक परिवर्तन के लिए हमेशा से बाहरी व्यक्तियों, विचारों और विधियों पर निर्भर रहते हैं। ‌ सदियों से हमने यही परंपरा देखी है और इस पर कभी हमने प्रश्नचिन्ह नहीं उठाया। ‌ हालांकि सभी प्रामाणिक पुस्तकों और विद्वानों द्वारा यह बात बार-बार कही गई है कि यह परिवर्तन आंतरिक ही हो सकता है, बाहर से भीतर की तरफ कभी भी नहीं।

परंतु मानव का मस्तिष्क इस तरह इन संचित सूचनाओं के तदनुकूल हो गया है कि वह अपनी सीमित ज्ञान के बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाता है। इस तदनुकूलता की स्थिति से बाहर निकलने के लिए बहुत हिम्मत, ताकत और जीवंतता चाहिए।

सत्य को संगठित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह एक जीवंत चीज है और पल-पल बदलता रहता है। ‌ इसके लिए एक सतर्क और सावधान रहना होता है। इसके साथ ही जानने की क्षमता सतत रूप से जागृत रखनी पड़ता है। यह क्षमता वैसे तो हर मानव में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है, परंतु समाज के तदनुकूल रहने के कारण उपजे पूर्वाग्रह के कारण कहीं न कहीं सो जाती है। ज्यादातर समय मानव सुषुप्त अवस्था में ही कार्य करता है। सुषुप्त अवस्था का मतलब है, जब हम सिर्फ अपनी संचित स्मृतियों के आधार पर कार्य कर रहे होते हैं अपने पूर्व ज्ञान के आधार पर कार्य कर रहे होते हैं, जो अत्यंत सीमित है। सत्य का भान पाने के लिए मनुष्य को अत्यंत सतर्क और जीवंत होना पड़ता है और उसके लिए पूरी स्मृति आज और अभी में होना चाहिए।

 ‌ लेकिन हम सब ऐतिहासिक समय में ही जीते हैं। भौतिक घड़ी के अनुसार नहीं अपने मनोवैज्ञानिक ऐतिहासिक समय में। क्योंकि हम मनोवैज्ञानिक रूप से पुराने विचारों से ही चिपके हुए हैं, इसलिए परिवर्तन की संभावना क्षीण हो जाती है और हम सब उसी तरह दुखी, परेशान, हिंसक, लालची, कामुक और बाह्य जीवन जीते रहते हैं।

आंतरिक परिवर्तन के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि हम समझे कि हमारा ज्ञान सीमित है और समाज में जिस तरह का जीवन हमने दिया है उसके तदनुकूल है। यह हमारा मूल स्वभाव नहीं है।

 जब व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान के प्रति जागृत होते हैं, इस मनुष्य में नम्रता आती है। यह नम्रता स्वाभाविक है, दिखावे के लिए नम्रता नहीं। ‌ फिर सतर्क होकर हम अपने मन के भावों को एक साक्षी के रूप में देखते हैं और जब हम ऐसा करते हैं तो फिर हमारा मस्तिष्क समग्र रूप से काम करता है। क्योंकि उस पर किसी भी तरह का पूर्वाग्रह या दबाव नहीं होता। ‌ एक बार मनुष्य अपने ही विचारों को जब देखना शुरु करता है, उन पर प्रश्न उठाना शुरू करता है और निरपेक्ष रूप से उनका आकलन करता है, तो परिवर्तन की प्रक्रिया अपने आप शुरू हो जाती है। ‌ वह पहले से तदनुकूल सुंदरता, प्रेम, ज्ञान आदि के मूल अवधारणाओं को एक नए तरीके से देखना शुरू करता है। तब उसके जीवन में परिवर्तन की संभावनाएं जागृत हो जाती है और यही जीवन की सार्थकता है। ‌ सभी धर्म मूल रूप से इसी की ओर इंगित करते हैं। धर्म का मतलब वो रीति रिवाज नहीं, प्रतिमाएं और मंदिर नहीं। वह धर्म जो मूल है। ‌ और इसके लिए हमें खुद अपनी जिम्मेवारी लेनी पड़ेगी, किसी गुरु,नेता या किसी भी अन्य व्यक्ति पर निर्भर रह कर इस जागृत अवस्था को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिम्मेवारी तो लेनी ही पड़ेगी।

—00—

< Contents                                                                                                                            Next >