अबला

                                     सुभाष चौरसिया 'बाबू'


हाँ मैं औरत हूँ, अबला हूँ

हिमालय से ऊंची हूँ

लेकिन बौनी हूँ

 दम्भी पुरुष के सामने

नीच हूँ, कुलटा हूँ, कुलक्ष्णी हूँ

वेश्या हूँ, नर्तकी हूँ

क्योंकि मैं नाचती हूँ

उनके इशारे पर

 नचाई जाती हूँ उन महफिलों में

बनकर कठपुतली

जिसके तार गिरफ्त है

उसके मजबूत पंजो में

इतने मजबूत कि मेरा

गले का लौह सिंकजा बनकर/p>

विधि का लेख भी

मिटा देते हैं एक पल में

कहने को तो

मैं लक्ष्मी हूँ, सरस्वती हूँ, देवी हूँ

ये सब जुमले है, भरमाने के

मै तो सिर्फ भोग्या हूँ अभागिन हूँ

 मतलब से बिस्तर की शोभा हूं

धरातल पर रौंदी जाती हूँ, ,

कुलटा कहकर कुचली जाती हूँ

लूटी जात हूँ, कटी पतंग की तरहा

क्योंकि मैं अबला हूँ

बस यही मेरा दोष है

कि मैं अबला हूँ "बाबू""

सबल होकर भी मैं अबला हूँ

ये मेरी स्वीकारोक्ति ही

मेरी दुर्गति की वजह है

बेवजह ही स्वीकार है मुझे

बस यही सोचती हूँ

न जाने क्यों बेडि़यो को

पहन लेती हूँ पायल समझ कर

मैं पागल हूँ , निश्चय ही पागल हूँ

अपनी शक्ति को भूल कर

भर लेती हूँ निज मांग

उनके नाम की

वाह क्या बात है

सिर मेरा, मांग मेरी

चुटकी भर सिंदूर के बदले

जीवन भर की दासता

वो भी जलालत से सराबोर

हाय लानत है मुझे

खुद ही में शाप हूँ

खुद के द्वारा, खुद के लिए

बस यही धारण कर मन में

कि मैं अबला हूँ,

शक्ति पुंज हूँ, शक्ति शाली हूँ

फिर भी मैं अबला हूँ

 


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