ये एकांत भी कितना अच्छा है ना
अधि. ज्योति रानी
ये एकांत भी कितना अच्छा है ना
सोचें ग़र तो अपना ये कितना सच्चा है ना
हों दुनियाँ की नज़रों में कितने भी सख़्त पर मन अंदर से कितना कच्चा है ना
कभी कभी झांक ले खुद के अंदर भी , कितना अच्छा है ना
जग ने बहुत जाना.. पहचाना पर खुद से खुद का ग़र हो जाए परिचय तो कितना अच्छा है ना
काँच के दर्पण में देखा बहुत .. ग़र मन के दर्पण में निखर जाएँ तो कितना अच्छा है ना
तोले मोले तो गए होंगे बहुत अब .. हो जाएँ ग़र अनमोल तो कितना अच्छा है ना ..
ये एकांत भी .....
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