शिक्षक-शिक्षा-शिष्य

मनिन्द्र मिश्रा 

"उतिष्ठत जाग्रत प्रात्य वरान्निबोधतं।" अर्थात - उठो, जागो,और तब तक आगे बढ़ो जब तक अपने लक्ष्य तक पहुंच जाओ। यह उक्ति हमारे उपनिषद की है।

मनुष्य का शरीर अनेक विभूतियों से भरा पड़ा है सिर्फ जरुरत है उन्हें जगाने की जैसे हनुमान जी को उनकी शक्ति का आभास जामवंत जी द्वारा कराए जाने पर वे समुद्र लांघ गए वैसे ही शिक्षक का दायित्व होता है शिष्य के सोए हुए ज्ञान को जगाने की, विषय वस्तु में रूची पैदा करने की उसकी जिज्ञासा बढ़ाने की।

शिक्षक का कर्त्तव्य एक कुशल कुम्हार से कम नहीं जो कच्ची मिट्टी से सुंदर खिलौने, मूर्त्तियों की रचना करता है। एक शिल्पकार बेडौल पत्थर को तरास कर मूर्त्तियां बनाता है। उसे पता होता है कि कब कितना चोट देने से पत्थर में निखार सकता है। शिक्षक की भूमिका एक कुशल पहलवान से कम नहीं है, जैसे पहलवान हर उम्र के व्यक्ति को लड़ने की कला सिखाता है, उसे पता होता है कि किस उम्र के व्यक्ति में कितनी शक्ति होती है। उससे थोड़ी ज्यादा शक्ति अपने अंदर से निकाल उसे सिखाता है। उसी प्रकार शिक्षक भी शिष्य के बौद्धिक स्तर का पता कर उसे शिक्षा प्रदान करता है। शिष्य के बौद्धिक स्तर से काफ़ी उच्चे स्तर पर दी गई शिक्षा शिष्य ग्रहण नही कर पाता है और वह पढ़ने से जी चुराने लगता है।

शिक्षा ग्रहण करने के लिए पात्रता चाहिए। पात्र में यदि छिद्र हो तो जल भर नहीं सकता उसी प्रकार शिष्य अगर उदण्ड हो तो ज्ञान ग्रहण नही कर सकता। इसके लिए शिष्य को संस्कारी, निश्छल, निर्विकार  होना होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी श्री राम चरित मानस में लिखते हैं कि " प्रात काल उठि के रघुनाथा। माता-पिता गुरू नवहिं माथा।।"

परन्तु आज के इस कंप्यूटर युग में इस प्रकार का आचरण इने-गिने शिष्यों में ही पाया जाता है। शेष तो ठीक इसके विपरीत आचरण वाले जैसे: आठ बजे उठहू कुलनाथा, माता-पिता गुरू फोरहूं माथा। जे निंद में खलल किन्हीं, दुई बांस पिठी पर दीन्ही।। इसे चरितार्थ करते हैं। डर या भय वश यदि इन्हें सुर्माग पर लाया जाए तो ये ही आगे चलकर चोर, लफंगे एवं आतंकवादी बन अपनी जिंदगी को नर्क के गर्क में डाल देते हैं तथा समाज को हानि पहुंचाते हैं।

व्यक्तित्व का निर्माण करना एक जटील कार्य है परन्तु आदर्श शिक्षक के मार्गदर्शन से वह सरल हो जाता है। साधन के आभाव में पहले गुरुकुल शिक्षा पद्धति थी। जहां आत्मवत् सर्वभूतेषु और वसुधैव कुटुंबकम् की शिक्षा दी जाती थी। परंतु आज विद्यालयि शिक्षा दी जाती है जो काफी महंगी होती है, जिसे सामान्य परिवार द्वारा वहन  कर पाना मुश्किल है। अतः वैसे जिज्ञासु शिष्य जो निर्धन हैं, ग्रहण नहीं कर पाते हैं।

आज के तकनीकी प्रधान युग में टेक्नोलॉजी जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। इंटरनेट, स्मार्टफोन, कंप्यूटर, सोशल मीडिया जीवन के अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में इनके उपयोग से वंचित व्यक्ति बदलते समय के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल पाएगा। इस विज्ञान को जानने और समझने के लिए गुरू की आवश्यकता है।

वास्तव में ब्रम्हा, विष्णु, महेश का समन्वय ही गूरू होता है। गुरू की महिमा अपरमपार  है। वह समदर्शी किसी प्रकार का भेदभाव यथा अमीर-गरीब, जाती- पात , ऊंच-नीच से रहित होता है। गुरू को चाहिए बिना भय एवं लालच के सत्य का पालन करे। महाकवि तुसीदास जी  रामचरित मानस में सचिव, वैद्य और गुरू के विषय में लिखते हैं कि "सचिव, वैद्य,गुरू तीनि जौ प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेहिं नास।।"

अर्थात मंत्री, वैद्य और गुरू ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से हितकर की बात कर प्रिय बोलते है तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीघ्र ही नास हो जाता है। अतः गुरू का दायित्व अपार है। वर्तमान युग में तथाकथित कुछ गुरू इन्द्रिय सुख के कारण गुरू के चरित्र पर कलंक लगा देते हैं ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए।

शिष्य अपना सर्वस्व गुरू को समर्पित करता है। उन्हें अपना भगवान मानता है और यदि गुरू कोई छल करें  तो वह घोर नरकवास  करता है। गुरू को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भी कभी शिष्य था। शिष्य है और शिष्य की तरह अध्ययन शील रहे।

अंत में मैं यही कहूंगा की व्यक्ति शिक्षक हो या शिष्य या साधारण मनुष्य सभी अपना आंतरिक निरीक्षण कर अपने अवगुणों का निवारण किए बिना व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं है।

          ॥इति॥

 

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