छलावा गर नहीं होता!

उर्मिला द्विवेदी

 

बहुत सालों तक कोई भी,   अपना नहीं रहता

जिसे तुम चाहने लगते, वो अपना नहीं रहता

 

रौशनी  के जाते ही,     परछाईं  भी नही रहती

दूसरों सा हो जाने में,  अपनी कद्र नहीं रहती

 

हकीकत है हवा में खुशबू, देरतक नहीं रहती

मुरझाई कली खुद की, शाखों पर नहीं रहती

 

बरसात की बूंद पत्तों पे, देर तक नहीं रहती

ढलते सूरज में, सुबह  की चमक नहीं रहती

 

बहुत  करीब  रहने से,  अपनापन नहीं रहता

दोस्त कई होने से, कोई काम का नहीं रहता

 

जोगी बहुत जमने से,   बस्ती उजड़कर रहती

छलावा गर नहीं होता, जिन्दगी हंसती रहती

 

बात मुंह से निकलने पर, राज वह  नहीं रहती

गम को बांट लेने पर, जिंदगी चलती है रहती

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