सम्पादकीय

हमारी शिक्षा-व्यवस्था के विकास का जिम्मेदार कौन: छात्र, अभिभावक अथवा सरकार ?

शिक्षा

देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक सुदृढ़ शिक्षा-प्रणाली देश के विकास में नींव का काम करती है। हमारे देश में शिक्षा-व्यवस्था अच्छी नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालय विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की सूची में अच्छा स्थान नहीं रखते हैं। यहां तक कि हमारे देश की आईआईटी भी विश्व के तकनीकी विश्वविद्यालयों में कोई सम्मानजनक स्थान नहीं रखती हैं।

हमारा शिक्षा-तंत्र बहुत से सुधारों की राह देख रहा है। देश को आजाद हुये 75 वर्ष पूरे होने को आये हैं, पर आज भी हम एक अच्छी शिक्षा-व्यवस्था के लिये तरस रहे हैं। अच्छी शिक्षा-व्यवस्था वह होती है जिसमें हर एक छात्र, हर एक शिक्षक अथवा हर एक अभिभावक अपनी भाषा, उसके ग्रंथ, सांस्कृतिक धरोहर, अपनी सभ्यता, और उसकी अच्छाइयों की जानकारी रखता है; साथ-ही-साथ सभी आधुनिक वैश्विक जानकारी अपनी भाषा में जानता और पढ़ता है।  

हमारे देश में आम जनता अथवा बच्चों के अभिभावकों से शिक्षा-व्यवस्था में योगदान की आशा करना व्यर्थ है क्योंकि वे राजनीतिक दलों के साथ जाति, संप्रदाय, भाषा और पंथ में बंटे हुये हैं। राजनीतिक दल अपने दल की संकुचित विचारधारा के सामने व्यापक देशहित को गौड़ रखते हैं। छात्र नादान और अभिभावकों पर निर्भर होते हैं। इसलिये उनका व्यवस्था के सुधार में कोई महत्वपूर्ण योगदान उनकी पढ़ाई काल में संभव नहीं होता है। हां, जब वे सक्षम होते हैं और आत्मनिर्भर बन जाते हैं तब वे देश की खराब शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर अच्छी शिक्षा के लिये विदेशों के विश्वविद्यालयों में अवश्य चले जाते हैं जो यह बताता है कि उनको यह खराब व्यवस्था पसंद नहीं है।

सरकारें जब चुन कर आती हैं, तब तमाम तरह के सब्जबाग दिखाती हैं, पर शिक्षा-व्यवस्था के सुधार की ओर ध्यान नहीं देती हैं, मानो सभी राजनीतिज्ञ यह मान बैठे हैं कि अच्छी शिक्षा उनकी प्राथमिकता नहीं है।  वर्तमान केंद्रीय सरकार ने नयी शिक्षानीति की रूपरेखा दी है। इससे कुछ आशायें बधी हैं। संभव है कि नजदीक भविष्य में इससे नौकरी के पीछे भागती भीड़ को अपने लिये, और अपने देश के लिये कुछ नया करने का समय निकले।

एक और बिडंबना देखिये। विदेशी परीक्षाओं में पूछे गये प्रश्नों को हमारे देश की प्रतियोगिता परीक्षाओं में हू-बहू पूछा जाता है। यहां तक कि आईआईटी की प्रवेश-परीक्षाओं में ऐसे प्रश्न होते हैं जो कभी-न-कभी विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं में किसी-न-किसी रूप में पूछे जा चुके होते हैं।

जब हम भारत में शिक्षा के सुधारीकरण की बात करते हैं तब हमें इसके रास्ते में रोड़ा बने जो प्रमुख कारण उभर कर नजर आते हैं, उनमें से कुछ हैं : एक ही पाठ्यक्रम का सबके लिये होना, बच्चों के दिमाग में शुरू से प्रतियोगिता करने का बीज बोना न कि अपना आत्म-कौशल, आत्म-ज्ञान विकसित करने पर जोर देना, अध्यापक का शिक्षण के प्रति पूर्ण लगन से समर्पित न होना, केवल रोजी-रोटी के लिये विद्यालय में पढ़ाने जाना, शिक्षा में विभिन्न प्रकार की जाति-धर्म आदि का आरक्षण होना, केवल नौकरी के लिये शिक्षा ग्रहण करना, और आवश्यकता से अधिक शिक्षा का व्यवसायीकरण होना।

हमारे देश का शिक्षा-तंत्र नर्सरी से लेकर अंतिम पायदान तक रटने की कला में माहिर होना सिखाता है, और बुद्धि-चातुर्य की जरूरत को नकारता है। देखा  जाता है कि आखिर में हमेशा रटंतू तोता ही पुरस्कृत होता है।

वर्तमान समय कौशल आधारित शिक्षा का काल है। कौशल जीवन में बहुत जरूरी होता है। कौशल की आवश्यकता को निखारती एक कहावत हैः

If you give a man a fish, you feed him for a day. If you teach a man to fish, you feed him for a lifetime.

यानि आप अगर एक आदमी को एक मछली देते हो तो आप उसे एक दिन का खाना देते हो और अगर आप उसे मछली पकड़ना सिखा देते हो तो आप उसे आजीवन के लिये खाना पाने का तरीका सिखा देते हो।

हमें गंभीरता से सोचना होगा कि आज भी कोलंबिया विश्वविद्यालय और हार्वर्ड क्यों महत्वपूर्ण बने हुये हैं और हमारे देश के विश्वविद्यालय क्यों नहीं?

हमें नहीं भूलना चाहिये कि सरकारें केवल (इंफ्रास्ट्रक्चर) संसाधन दे सकती हैं, ज्ञान देने और योग्य बनाने का काम तो वहां के शिक्षकों को ही करना होगा। ठीक उसी प्रकार, जैसे एक कुम्हार घड़ा तो बना सकता है पर उसमें रखना क्या है, इसे तो घड़ा रखने रखने वाला ही तय  करता है। 

ज्ञानविज्ञानसरिता परिवार का मानना है कि शिक्षालय का गौरव वास्तव में शिक्षक ही होता है। शिक्षा-व्यवस्था में सुधार की सबसे अधिक जिम्मेदारी शिक्षकों की है। उनको केवल नौकरी करने विद्यालय अथवा विश्वविद्यालय नहीं जाना चाहिये बल्कि विद्यार्थियों को वह शिक्षा देने जाना चाहिये जो उनके जीवन में कारगर साबित हो और उनके जीवन को मौलिक बनाये न कि रट्टू तोता।

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