किशोर गीता :
3: नित्य-अनित्य (Eternal- Transit)
लगभग 14 बिलियन वर्ष पूर्व पदार्थ, ऊर्जा, काल (Time) तथा अन्तराल (Space) अस्तित्व मे आये जिसे हम बिग-बेंग (Big Bang) के नाम से जानते हैं तथा भौतिक विज्ञान में अध्ययन करते हैं। इसके करीब 3 लाख वर्ष पश्चात पदार्थ, ऊर्जा एकत्रित होकर जटिल संरचनाओ- परमाणु, अणु- मे बदलने लगे। उनका तथा उनकी परस्पर क्रियाओं का अध्ययन हम रसायन शास्त्र में करते हैं। अन्ततः पृथ्वी पर करीब 3 बिलियन वर्ष पूर्व कुछ अणुओं ने और विशिष्ट प्रक्रिया कर अत्यधिक जटिल संरचना कर जीव बनाये । इनकी कहानी हम जीव विज्ञान मे पढ़ते हैं।
भौतिक तथा रसायन विज्ञान से जीव विज्ञान की तुलना करें तो हम पाते हैं कि तीनो में पदार्थ और ऊर्जा है, परन्तु जीव मे इसके अतिरिक्त एक विशिष्ट तत्व “चेतना” (Consciousness) होती है जो की जीव को जड़ (पदार्थ और उर्जा) से अलग करती है। चेतना के संग से जड़- उत्पत्ति, वृद्धि और क्षय के चक्र मे चलता रहता है, पर स्वयं “चेतना” मे कोई बदलाव नही होता है। अतः “चेतना” नित्य (Eternal) है और जड़ (Transit) हैं । गीता मे इसी “चेतना” को “आत्मा” (“शरीरी” “देही” ) नाम से कहा गया है (जो जड़- शरीर, देह से अलग है) और उसकी विशेषताएं बताईं गयीं हैं।
अविनाशी (आत्मा) तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता । ।।2.17।। अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरी के ये देह अन्त वाले कहे गये हैं । ।।2.18।। यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्म रहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता । ।।2.20।। शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती । ।।2.23।। सब के देह में यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये (मृत्यु के कारण) तुम्हें (किसी को भी) शोक नहीं करना चाहिये । ।।2.30।।
चेतना या आत्मा को विज्ञान अभी पूरी तरह से समझ नही पाया है । परन्तु विज्ञान भी इसी प्रकार के अविनाश के सिद्धान्तो को रसायन और भौतिक शास्त्र में प्रतिपादित करता है और वे प्रयोग से सिद्ध हो चुके हैं । रसायन शास्त्र का “द्रव्य मान संरक्षण का नियम” (Law of Conservation of Mass) कहता है, क्रियाओं से यद्यपि पदार्थो का स्वरुप बदलता है पर क्रियाओं मे भाग लेने वाले पदार्थो का कुल वजन और क्रियाओं से बनने वाले पदार्थो का कुल वजन समान ही होता है । भौतिक शास्त्र का “ऊर्जा संरक्षण का नियम” (law of conservation of energy) कहता है ऊर्जा का स्वरुप बदला जा सकता है या बदलता रहता है (प्रकाश ऊर्जा से उष्म ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा से यांत्रिकी ऊर्जा आदि) मगर कुल ऊर्जा का मान बदला नही जा सकता । इसी प्रकार संरक्षण के अन्य कई नियम हैं जैसे- “रेखीय संवेग का संरक्षण का नियम” (Law of Conservation of Linear Momentum) आदि । विशेष, भौतिकी का E= MC2 , ( E=Energy, M =Mass, C= speed of light) समीकरण कहता है, पदार्थ और ऊर्जा आपस मे भी बदलते हैं और उनका योग संरक्षित रहता हैं । हम आशा करते हैं जीव विज्ञान मे भी कभी चेतना का संरक्षण का नियम (Law of conservation of Consciousness) आयेगा और गीता मे कही हुई उपरोक्त सभी बातें विज्ञान द्वारा भी सिद्ध हो सकेगीं।
यद्यपि रसायन तथा भौतिक शास्त्र और गीता मे कही गई बाते हम पूरी तरह समझ न सके फिर भी ये सभी, कुछ विषिष्ट बातों की और इशारा करती है। एक- बदलाव होने का अर्थ नष्ट होना नही है दूसरा -इस बदलाव मे भी कुछ चीजे नही बदलती । अतः बदलाव से न हमे प्रसन्न होना है न दुखी होना है क्योंकि बदलाव का अर्थ होता है एक वस्तु (विचार) का नष्ट होकर दूसरी वस्तु (विचार) का निर्माण होना । इससे भी महत्व पूर्ण है, हमें हो रहे बदलाव में जो स्थिर है उस पर ध्यान देने का अभ्यास करना चाहिये जिससे बदलाव के प्रति आश्चर्य, खेद, प्रसन्नता, क्रोध आदि की भावनाएं न हों । वृद्ध व्यक्ति खेद पूर्वक कहते हैं, हमारे समय में पत्रिकाओं मे कहानियां, उपन्यास धारावाहिक रुप में आती थी । मगर ध्यान से देखे तो वही कहानियां, उपन्यास अब अपने नये स्वरुप में टीवी धारावाहिक में दिखाये जाते हैं। कहानियां, उपन्यास वही हैं केवल माध्यम बदला है। इस दृष्टिकोण का विद्दार्थियों को पढ़ाई मे भी बहुत उपयोग हो सकता है । गणित की एक प्रश्नावली के अलग-अलग प्रकार से कहे गये प्रश्नों मे दी गयी या पूछी गयी जानकारी को एक सूत्र के घटक के रुप मे पहचानने का अभ्यास करें तो सभी प्रश्न एक जैसे दिखेगें।
गीता में कहा गया है- इन्द्रियों के जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं तथा आने-जाने वाले और अनित्य हैं। अर्जुन! उनको तुम सहन करो। ।।2.14।। अर्थात अनित्य (Transit) हमेशा बदलता रहेगा । परन्तु यह हमारी जिन्दगी का केन्द्र बिन्दु (Core) न होकर बाहरी आवरण (Peripheral) मात्र है। हमे स्वयं और आसपास मे जो नित्य (eternal) है उस पर ध्यान देना है । इसी वृत्ति से हम, हमारे लक्ष्य से दूर नहीं जायेंगे ( will not get distracted) तथा लक्ष्य को कम समय और श्रम से ही प्राप्त कर सकेगें।
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