अंदाज ए बयां

आजादी के इन्तजार में!!

समीर लाल ‘समीर’

हरि बाबू  गांव के सबसे बुजुर्ग रहे होंगे. टूटती काया, माथे पर चिन्ता की गहरी गहरी लकीरें, मोटे से चश्में से ताकती बुझी हुई आँखें, शायद ८४ बरस की उम्र रही होगी. हर दोपहर वो अपने अहाते में कुर्सी पर धूप में बैठे दिखते मानो किसी का इन्तजार कर रहे हों.

दो बेटे हैं. शहर में रहते हैं और हरि बाबू यहाँ अकेले. निश्चित ही बेटों का इन्तजार तो नहीं है, क्योंकि हरि बाबू जानते हैं कि वो कभी नहीं आयेंगे. बहु और बच्चों के लिए हरि बाबू अनपढ़ और देहाती हैं, तो हरी बाबों के उनके वहाँ जाने का भी प्रश्न नहीं. फिर आखिर किसका इन्तजार करती हैं वो आँखें? माथे पर यह चिंता की लकीरें किस बात के लिए.  कहते हैं जब कोई उम्मीद बाकी नहीं रह जाती, तब भी किसी चमत्कार का इन्तजार लगा ही रहता है और वही चिन्ता का कारण भी बन जाता है.  बात सही भी लगती है.  सारा देश जाने किस चमत्कार के इन्तजार में टकटकी लगाए बैठा ही है.     

उम्र की मार के कारण हरि बाबू की स्मृति धोखा देती है, पर बेटों से थोड़ा कम. आसपास देखी घटनायें ४-६ दिन तक याद रह जाती हैं. कुछ पुरानी यादें भी और कुछ पुरानी बातें भी, कुछ टीसें-नश्तर सी चुभती हैं. इतना सा संसार बना हुआ है उनका और उसी में वो जिये जा रहे हैं. यही आधार है उनका और उनकी सोच का. कभी कभी गली के कोने तक चल कर जाते हैं और शहर से आते हुए राजमार्ग की तरफ बहुत दूर तक नजर दौड़ाते हैं और वापस लौट आते हैं. 

अकेले आदमी की भला कितनी जरुरतें? खुद से थोप थाप कर एक दो रोटी, कभी गुड़ तो कभी सब्जी के साथ खा लेते हैं और अहाते में बैठे-बैठे दिन गुजार देते हैं. बोलते कुछ नहीं. न ही कभी मुस्कराते हैं. 

जब मुझसे नहीं रहा गया तो एक दिन उनके पास चला गया. हमदर्दी से ज्यादा जिज्ञासावश पूछ बैठा कि ’चाचा, किसका इन्तजार करते हो? किस बात की चिन्ता में रहते हो?’

हरि बाबू पहले तो चुप रहे और फिर धीरे से बोले,’देश आजाद हो जाता तो चैन से मर पाता. बस वही इन्तजार लगा है और इसी बात की चिन्ता खाये जाती है.’

मैं हँसा. आजादी को लेकर भले ही कितना कन्फ्यूजन पसरा हो आजकल मगर अब देश आजाद है यह तो सब ही मान चुके हैं.  मैने कहा कि ’चाचा, देश तो कब का आजाद हो गया…. देश को आजाद हुए तो ७५ बरस हो गये. सन ४७ में ही आजाद हो गया था.’

अरे वाह! देश तो आजाद हो गया…. सुनते ही एकाएक हरि बाबू के होंठों पर एक मुस्कान फैली और चेहरा बिल्कुल चिन्ता मुक्त, जाने कितना बड़ा बोझ उतर गया हो. फिर उन्होंने दीवाल का सहारा लेकर आंखे मुंद ली.

हरि बाबू नहीं रहे.

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