मैं कौन?

पुरुषोत्तम विधानी

मैं कौन हूँ,कहाँ से आया, कहाँ जाना है। यह संसार क्या है, किसने बनाया। ईश्वर कौन है, क्या करता है। यह जिज्ञासा सबको रहती है। विज्ञान और आध्यात्म दोनों ने इन प्रश्नों को हल करने की कोशिश की है और अभी भी कर रहे हैं। पहले तो विज्ञान ने बिग बैंग थ्योरी दी, फिर कोई और, आने वाले समय में शायद और भी कई थियोरी खोजी जाएंगी, जब तक हम पूर्णरूपेण संतुष्ट नहीं हो जाते। मानव का एक विशेष गुण है जिज्ञासा, जब तक शांत नहीं होती, तब तक वह शांत नहीं होता। अब तक इस संबंध में जो जानकारी है, आइये उसे समझने का प्रयास करते हैं। विज्ञान की 3 प्रमुख शाखाएं हैं-भौतिक शास्त्र, रासायनिक शास्त्र और जीव शास्त्र। गणित द्वारा इनके सिद्धान्तों को जांचा, परखा जाता है और निष्कर्ष निकाले जाते हैं।गणित की 3 प्रमुख शाखाएं हैं-अंक गणित, बीज गणित और रेखा गणित। बीजगणित, अंकगणित का ही हिस्सा है। भौतिक शास्त्र ने कहा सृष्टि का निर्माण बिग बैंग से हुआ, अचानक, एक धमाके के साथ विस्फोट हुआ और कई तारे ,सूर्य,ग्रह, चंद्रमा बने। प्रारंभ में तत्वों की संख्या बहुत ही सीमित थी, धीरे धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। मेंडलीफ ने तत्वों पर गहन अध्ययन कर एक तालिका बनाई, उसके बाद भी कुछ तत्वों की खोज हुई है। इन तत्वों की संख्या 100 से अधिक है। तत्व की छोटी इकाई उस समय परमाणु बताई गई, अब उससे भी छोटे पार्टिकल्स की खोज हो रही है। परमाणु की रचना में इलेक्ट्रान, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन हैं। केंद्र में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन रहते हैं, इलेक्ट्रॉन केंद्र के चारों तरफ घूमते रहते हैं। परमाणु का भार मुख्यतः प्रोटॉन के आधार पर होता है। इलेक्ट्रॉन की संख्या के आधार पर परमाणु का स्थिर या अस्थिर होना निर्भर करता है।

अब इसे गुण कहें, जिज्ञासा कहें या टेंडेंसी कि हर परमाणु स्थिर होना चाहता है। इस प्रक्रिया में ताप शक्ति उत्प्रेरक का काम करती है। ताप, ध्वनि, चुम्बक आदि शक्तियां हैं, इनका परिमाण बल के द्वारा नापा जाता है। सृष्टि निर्माण में पहले जो अस्थिर परमाणु थे, वे स्थिर परमाणुओं में बदले। अनेकों वर्षों तक यह भौतिक क्रिया चलती रही। इसके बाद अलग अलग गुण धर्म वाले परमाणुओं ने मिलकर नए गुण धर्म वाले अणु/यौगिक का निर्माण किया। इस क्रिया को रासायनिक क्रिया कहा गया। कहते हैं इसके बाद जल की उत्पत्ति हुई। तब तक जीवन नहीं था। जल की जिज्ञासा कहें या टेंडेंसी, उसके और पृथ्वी के मिलन से काई बनी और काई की जिज्ञासा या टेंडेंसी से उसमें अमीबा जैसे सरल शरीर रचना वाले जीव पैदा हुए, इसके साथ ही जीवन का विकास क्रम प्रारम्भ हो गया। डार्विन ने अपने अध्ययन से मानव बनने तक की यह जीवन क्रिया समझाने की कोशिश की। इस प्रकार मानव के अस्तित्व में आने में लाखों, करोडों वर्ष लग गए। यह विकास क्रम, जिज्ञासा या टेंडेंसी अब भी जारी है। मानव विकास की यह यात्रा, ईश्वर को पाने की है।

इस तथ्य को समझने के लिए एक थ्योरी है प्रकृति, जीव और ईश्वर। प्रकृति और जीव परिवर्तनशील हैं और ईश्वर अपरिवर्तशील। ईश्वर के गुण हैं-वह एक है, सत्य है सारी क्रियाएं उसीमें होती हैं। वह अजन्मा है, अजर, अमर, अविनाशी है। शांतिस्वरूप, प्रेमस्वरूप, तेजस्वी, ऊर्जा का स्त्रोत ज्योतिस्वरूप, ध्वनिस्वरूप निर्विकार, निराकार, रसहीन, गंधहीन भारहीन, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान आदि आदि। प्रकृति और जीव का स्त्रोत भी वही है। यदि प्रकृति और जीव का नाश होता है तो वे इसी ईश्वर में समा जाएंगे। इस थ्योरी को समझने के लिए एक छोटे से मॉडल की यदि कल्पना करें तो वह है सागर। सागर में लहरें उठती हैं और उसी में गिर जाती हैं। सागर का पानी भाप बनता है, बादल बनता है, बारिश होती है, नदी नाले के द्वारा वापस समुद्र में आकर मिल जाता है।

इसीसे प्रकृति और जीव सबका पोषण होता है। इसे एक इको सिस्टम कहा गया है, इस बड़े इको सिस्टम में कई छोटे छोटे इको सिस्टम काम कर रहे हैं, जैसे समुद्र के अंदर और बाहर कई वनस्पतियों, जीवों का जीवन चक्र। इस प्रकार एक बड़ी व्यवस्था के अंदर कई छोटी छोटी व्यवस्थाएं काम करती रहती हैं। इसे पर्यावरण संतुलन भी कहा गया है। कोरोना को पर्यावरण असंतुलन की एक विश्व व्यापी घटना कहा गया है।

इस घटना ने मानव को सोचने पर मजबूर कर दिया है। इतनी मेहनत लगाकर, इतनी बुद्धि लगाकर भी मानव जाति सहम गई है और यह डर सताने लग गया है कि कहीं ऐसा हो कि हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। आइये सोचें, हम क्या कर सकते हैं। समाधान सरल है पर सरलता अब हमारी बुद्धि को स्वीकार नहीं होती। क्योंकि यह सरल तो है पर बहुत ही सूक्ष्म, इसे आसानी से समझा भी जा सकता है और नहीं भी समझा जा सकता। हमने पूरी ताकत और बुद्धि लगाकर अपने आप को भस्मासुर बना लिया है। अहंकार इतना कि सरल बात भी समझ नहीं रही। ईश्वर बार बार प्रकृति के माध्यम से समझाने की कोशिश कर रहा है। इस संसार में तेरा कुछ नहीं है, जो लिया यहीं से लिया और यहीं छोड़कर जाएगा। तेरी आवश्यकता दो ववत की रोटी, दो जोड़ी कपड़े, दो कमरे का मकान और दो गज़ ज़मीन है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति सहज है, सरल है, सबके सहयोग से संभव है। आवश्यकता से अधिक का संग्रह विनाश का कारण है। जल जब तक बहता है गंगा की तरह पवित्र है, जीवनदाई है। वही जल एक गढ़े में एकत्रित हो जाए तो सड़ने लगता है, दुर्गंध फैलाने लगता है। सारी प्रकृति सिखा रही है। नदी जल देती है, वृक्ष फल देते हैं, यह देने का क्रम रुकता नहीं है, इको सिस्टम काम करता है, नदी को जल मिलता रहता है, वृक्षों को जीवनदायी तत्व मिलते रहते हैं। अब हम थोड़ा रुककर सोचें कि क्या हमारी विकास की अवधारणा सही है। अभी तक हम दूसरों को बदलने का प्रयास करते रहे हैं, क्योंकि स्वयं को, इस व्यवस्था को समझ नहीं पाए हैं। ध्यान से सोचने, समझने, दिशा तय करने और सही दिशा में बढ़ने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा हो कि देर हो जाए। शुरुआत आज से, अभी से, स्वयं से करने की आवश्यकता है।

अब आध्यात्म की बात करें तो उसका कहना है कि विज्ञान और आध्यात्म पूरक हैं, उसे यह हठवादिता छोड़नी होगी कि जो दिखता है वह है, जो सिद्ध हो सकता है वह है। बाकी के बारे में मौन तोड़ना होगा। विज्ञान अज्ञात पर खोज जारी रखे हुए है पर अब तक सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सका है। आध्यात्म के पास हर प्रश्न का उत्तर है। शर्त यह है कि इसे सस्ते में नहीं पाया जा सकता।आत्मा, परमात्मा, संसार सम्बधी प्रश्न इतने मूल्यवान हैं कि इसके उत्तर वही पा सकता है जो पाना चाहता है। बाकी लोगों के लिए यह प्रश्न अन्य कोतुकों की तरह एक कौतूहल है। जिन्होंने इन प्रश्नों के उत्तर पा लिए हैं, वह जानने की विधि बता सकते हैं, पर जो जानना चाहता है उसे भी उन्हीं की तरह उतना ही ध्यान करना पड़ेगा, तपस्या करनी पड़ेगी जितनी उन्होंने की। वो एक झलक दिखा सकते हैं जो कुछ क्षण रहने के बाद विस्मृत हो जाएगी। उस एक झलक को देखकर यदि आपको विश्वास हो जाए, आप शरणागत हो जाओ और उनके बताए मार्ग पर चल पड़ो तो धीरे धीरे आपकी दृष्टि विकसित हो जाएगी और आपके सभी प्रश्नों के समाधान मिल जाएंगे।

झलक जो हम देख पाए हैं वह है अस्तित्ववाद। अस्तित्व तीन चीजों का है-जड़, चैतन्य और निर्वात(वैक्यूम)। मैं कौन हूँ इसका जवाब है मैं एक चेतना हूँ। संसार क्या है इसका जवाब है जड़ और चैतन्य का मिक्स। ईश्वर क्या है, निर्वात (वैक्यूम) ही ईश्वर है। जड़ और चैतन्य सभी उस वैक्यूम में डूबे हुए, भीगे हुए, उसीसे ही घिरे हुए हैं और उसीसे ऊर्जा पाते हैं। ऐसा स्थान हो सकता है जहाँ जड़ और चैतन्य हों, पर ऐसा कोई स्थान नहीं हो सकता जहाँ वैक्यूम हो। वही सर्वव्यापक है,सर्वशक्तिमान है। वह तो पैदा हुआ है ही उसका नाश होगा। सदा से है और सदा रहेगा, वह ऊर्जा का स्वयं स्त्रोत है।जड़ प्रगति कर चैतन्य बना।

अस्तित्व में 4 वस्तुएं विकास क्रम में क्रमशः इस प्रकार हैं-पदार्थ, पेड़-पौधे, जीव-जंतु और मानव। कुछ चीजें दृष्टिगोचर हैं अन्य ज्ञानगोचर जो देखी नहीं जा सकती हैं। "जाने हुए को मान लें औऱ माने हुए को जान लें"। इससे ही सही दृष्टि विकसित होगी। चैतन्य प्रगति कर उस सर्वव्यापक को समझ सकता है। समझ कर यह जान लेगा कि संसार सहअस्तित्व पर टिका है। सहअस्तित्व में जिए बगैर सुख की आकांक्षा मृगमरीचिका के समान है। पूर्ण सुख के लिए, निरंतर सुख के लिए, धैर्यपूर्वक अध्ययन आवश्यक है। अनुभूति आवश्यक है।

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