किशोर गीता  :

4- सत्- असत् (Existent and Non-existent)

प्रकाश काले

हम जानते हैं चन्द्रमा का जो प्रकाश हमें दिखाई देता है वह सूर्य के कारण है और मात्र सूर्य का परावर्तित प्रकाश है । हम कहते हैं “फ्रीज” वस्तुयें शीतल करता है और “ओवन” वस्तुयें गरम करता है। परन्तु इन दोनो मे विद्युत प्रवाह न हो तो हम जानते हैं कुछ भी नही होगा । तो क्या एक ही विद्युत कभी शीतल और कभी गरम प्रभाव उत्पन्न करती है ? यह भी ठीक नही लगता । वास्तव मे विद्युत स्वंय कुछ नही करती पर उसके बल से “फ्रीज” या “ओवन” अपनी-अपनी बनावट अनुसार प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

हम जो कुछ देख पाते हैं उसके दो भाग हैं सत्-असत् (existent and non-existent)। जो दिखाई देता (या अनुभव होता) है  वह सत् नहीं है लेकिन सत् दिखाई देता है। जो असत् है वह सत् से ही प्रकाशित हो रहा है । असत् की अपनी सत्ता नहीं है तथा असत् में जो सत्ता प्रतीत होती है वह सत् के कारण है। अगर सत् अपनी सत्ता हटा ले तो अ-सत् का कोई प्रभाव नहीं रहेगा । सत् का अर्थ है अपरिणामी, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। अ-सत् परिणामी है अर्थात जिसमें परिवर्तन होता है। सत् एक ही है और जितनी वस्तुएं है सब असत् हैं। इस जगत में सब कुछ कारण युक्त है, व्यक्त जगत में हम जो कुछ देखते हैं “सत्” उसका कारण और आधार है। जब हम कारण की तरफ चलते हैं तब चलते-चलते मूल कारण तक पहुंच जाते हैं।इसके बाद और कोई कारण नहीं पाते हैं वही सत् (आत्मा-परमात्मा) है।

गीता इसी मूल तथ्य को रेखांकित कर कहती है, मनुष्य- शरीर (असत्) नही आत्मा (सत्) है। (इनको अन्य पर्यायवाची नाम, प्रकृति-पुरुष तथा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ से भी समझाया है।) शरीर, आत्मा का व्यक्त रुप, साधन, करण और उपकरण (Instrument of action) मात्र है ।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार - यह आठ प्रकार के भेदों वाली 'अपरा' प्रकृति है (जिनसे शरीर बना है)। इससे भिन्न जीव रूप बनी हुई 'परा' प्रकृति है, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है । ।।7.4 - 7.5।। इन दोनों प्रकृतियों के संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं । ।।7.6।। सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीच में ही प्रकट दिखते हैं।।।2.28।। प्रकृति और पुरुष – दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।।।13.20।।

(इसी प्रकार) शरीर को 'क्षेत्र' कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग 'क्षेत्रज्ञ' नाम से कहते हैं । ।।13.2।। मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय (चौबीस तत्त्व)  ।।।13.6।। (तथा) इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राण शक्ति) और धृति - इन विकारों सहित यह क्षेत्र है।।।13.7।।

सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' -- ऐसा मानता है। ।।3.27।। (इस) तत्त्व को जानने वाला देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं' --ऐसा समझकर 'मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ'-ऐसा माने। ।।5.8 - 5.9।। जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने-आपको अकर्ता देखता (अनुभव करता) है, वही यथार्थ देखता है।।।13.30।। यह पुरुष (आत्मा) स्वयं अनादि और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्म स्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।।।13.32।।

यह पुरुष, प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध रखने (न होकर मानने से) से 'उपद्रष्टा'( गवाह), उसके साथ मिलकर अनुमति देने से 'अनुमन्ता', उसका भरणपोषण करने वाला मानने से 'भर्ता', उसके संग से सुख -दुःख भोगने से 'भोक्ता', और उसका स्वामी मानने से 'महेश्वर' बन जाता है। परन्तु स्वरूप से यह पुरुष 'परमात्मा' कहा जाता है। यह देह में रहता हुआ भी देह से परे (सम्बन्ध-रहित) ही है।।।13.23।। जीवन में जो कुछ अच्छा या बुरा घटने पर हमारे मन मेँ जो भाव आते हैं या मन में जो हलचल या अशान्ति होती है उन सबके मूल मे यह माना हुआ सम्बन्ध या स्वंय को शरीर मानना ही है। 

इन तत्वों (Principles) - हम “शरीर” नही “आत्मा” है, शरीर आत्मा के बल से ही कुछ कर पाता है, पर हम स्वयं (आत्मा) कुछ नही करते तथा कुछ नही भोगते आदि-  को जान ले और जीवन में इन्हें अपना ले तो, जीवन मे हमारे (शरीर के) साथ जो कुछ होता है या शरीर द्वारा होता है उसे हम अपना या अपने द्वारा न मानकर किसी अन्य (शरीर) के साथ या द्वारा हुआ समझेंगे तथा (दुसरे के साथ घटी घटनाएं हमारे मन को प्रभावित न करने से) अनेका-अनेक भावनाओं (अहंकार, अपमान आदि) से स्वयं को बचाकर परम शांन्ति का अनुभव करेंगे/ कर सकते हैं।

(इस प्रकार) बाह्य स्पर्श (शरीर) में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में जो सुख है, उसको प्राप्त होता है। ।।5.21।।

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