स्त्री की विडंबना

डॉ. संगीता पाहुजा

 

बहुत ही बोलबाला हो रहा सृष्टि में,स्त्री पुरुष की समानता का।

बड़े बड़े उत्सव मनाए जा रहे जग में,स्त्री के उत्थान को लेकर, उसके स्वाभिमान को लेकर।

 

बहुत ही भव्य प्रदर्शन होते, स्त्री के उत्थान को लेकर

मिथ्या ही उत्साह जगा देता

स्त्री के कोमल मन में, उसके स्वछंद होने का।

 

मिटेगी नहीं जब तक, आश्रिता होने की भावना

पाएगी तब तक,समानाधिकार कभी।

 

जन्म होते ही,पहले आश्रिता माता पिता की होती।

विवाहोप्रांत आश्रिता पति की कहलाती।

हर निर्णय में सहमति तलाशती।

 

दुर्भाग्य से यदि पति संग छूटे

तो बिन माता से पूछे

संतान भी आश्रय देने वाली को,आश्रिता होने का अहसास दिलाती।

 

जन्म और मरण, दोनों ही समय अपने गर्भ में आश्रय देने वाली माता आश्रिता कैसे हो सकती।

 

स्त्री,जब तक समझोगी,अपनी मातृशक्ति को,तब तक आश्रय देने वाली होकर भी,आश्रिता होने के अहसास से तुम प्रताड़ित होगी।

 

स्त्री उठ जाओ तुम मातृ शक्ति बनकर,

आश्रय देने का ही सम्मान सदा पाओ।

हैं स्त्री की यही विडंबना

त्यागमूर्ति बन,सब स्वीकार करती,और समानाधिकार से वंचित होती।

समझो अपने अस्तित्व को

और स्वयं को स्वयं से परिचित करवाओ।

 

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