दान

सुरेश तलरेजा

 

एक हाथ से किया गया दान हजारों हाथों से लौटकर आता है। जो हम देते हैं वो ही हम पाते हैं। दान के विषय में हम सभी जानते हैं। दान अर्थात देने का भाव, अर्पण करने की निष्काम भाव।दान एक मानवीय गुण है, जिसके माध्यम से इस धरती पर कुछ खुशहाली देख पाते रहे है। बहुत से  लोगों ने वर्तमान समय में भी अनेकों प्रकार से दान किए हैं। गणतंत्र दिवस का पर्व इसी माह मनाया जायेगा,संविधान निर्माता ओ के मन में  सर्व शुभ  की भावना रहीं होगी।मानव मानव का शोषण न करें यही इस सदी का महादान होगा।हमारी देश की स्वतंत्रता में बहुत से सेनानियों ने बलिदान दिया है,  के कारण आज हम  अच्छा जीवन जी रहे हैं। देने का भाव तो बहुत  दूर की बात है, हम तन मन धन से  बहुत तंग दिल है।मानव मे सिर्फ लेने का भाव  प्रबल रहा हैं, जबकि प्रकृति में देने का प्रबल है।हम अपने स्वभाव को पहचाने और अपने  अंदर देने का भाव जाग्रत करे। मुख्यतः दान चार प्रकार के बताए गए हैं- अन्न दान, औषध दान, ज्ञान दान एवं अभय दान एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अंगदान का भी विशेष महत्व है। दान एक ऐसा कार्य है, जिसके द्वारा हम न केवल धर्म का पालन करते हैं बल्कि समाज एवं प्राणीमात्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी करते हैं।

 किंतु दान की महिमा तभी होती है, जब वह नि:स्वार्थ भाव से किया जाता है अगर कुछ पाने की लालसा में दान किया जाए तो वह व्यापार बन जाता है। यहां समझने वाली बात यह है कि देना उतना जरूरी नहीं होता जितना कि 'देने का भाव'। अगर हम किसी को कोई वस्तु दे रहे हैं लेकिन देने का भाव अर्थात इच्छा नहीं है तो वह दान झूठा हुआ, उसका कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार जब हम देते हैं और उसके पीछे यह भावना होती है, जैसे पुण्य मिलेगा या फिर परमात्मा इसके प्रत्युत्तर में कुछ देगा तो हमारी नजर लेने पर है, देने पर नहीं तो क्या यह एक सौदा नहीं हुआ? दान का अर्थ होता है देने में आनंद, एक उदारता का भाव, प्राणीमात्र के प्रति एक प्रेम एवं दया का भाव, किंतु जब इस भाव के पीछे कुछ पाने का स्वार्थ छिपा हो तो क्या वह दान रह जाता है?

गीता में भी लिखा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो।  हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, यह तो संसार एवं विज्ञान का धारण नियम है। इसलिए उन्मुक्त हृदय से श्रद्धापूर्वक एवं सामर्थ्य अनुसार दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ-साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा।

आज के परिप्रेक्ष्य में दान देने का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि आधुनिकता एवं भौतिकता की अंधी दौड़ में हम लोग देना तो जैसे भूल ही गए हैं। हर संबंध व हर रिश्ते को पहले प्रेम, समर्पण, त्याग व सहनशीलता से दिल से सींचा जाता था, लेकिन आज? आज हमारे पास समय नहीं है, क्योंकि हम सब दौड़ रहे हैं और दिल भी नहीं है, क्योंकि सोचने का समय जो नहीं है!

हां, लेकिन हमारे पास पैसा और बुद्धि बहुत है, इसलिए अब हम लोग हर चीज में इन्वेस्ट अर्थात निवेश करते हैं, चाहे वे रिश्ते अथवा संबंध ही क्यों न हों! तो हम लोग नि:स्वार्थ भाव से देना भूल गए हैं। देंगे भी तो पहले सोच लेंगे कि मिल क्या रहा है? और इसीलिए परिवार टूट रहे हैं, समाज टूट रहा है। जब हम अपनों को उनके अधिकार ही नहीं दे पाते तो समाज को दान कैसे दे पाएंगे? अगर दान देने के वैज्ञानिक पक्ष को हम समझें कि जब हम किसी को कोई वस्तु देते हैं तो उस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं रह जाता, वह वस्तु पाने वाले के आधिपत्य में आ जाती है, अत: देने की इस क्रिया से हम कुछ हद तक अपने मोह पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। दान देना हमारे विचारों एवं हमारे व्यक्तित्व पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है, इसलिए हमारी संस्कृति हमें बचपन से ही देना सिखाती है, न कि लेना। हमें अपने बच्चों के हाथों से दान करवाना चाहिए, ताकि उनमें ये संस्कार बचपन से ही आ जाएं।

 दान धन का ही हो, यह कतई आवश्यक नहीं। भूखे को रोटी, बीमार का उपचार, किसी व्यथित व्यक्ति को अपना समय, उचित परामर्श, आवश्यकतानुसार वस्त्र, सहयोग, विद्या- ये सभी जब हम सामने वाले की आवश्यकता को समझते हुए देते हैं और बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करते, तो ये सब दान ही हैं।

श्री रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि 'परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है।'

दानों में विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ दान होता है, क्योंकि उसे न तो कोई चुरा सकता है और न ही वह समाप्त …

कृपया कुछ समय अपने लिए अवश्य निकाले अपने  सामर्थ्य और रूचि अनुसार दान करे। सुविचार, सद्बुद्धि एंव विद्या दान जैसे अनेकों कार्य कर सकते हैं।

 

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