दुनिया हमसे चलती है (गर्व)
पुरुषोत्तम विधानी
एक आदमी की छोटी सी दुकान थी, उसीसे उसके परिवार का गुजारा चलता था।उसे लगता था वह नहीं होगा तो उसके परिवार का क्या होगा।एक दिन उसने सत्संग में संत को कहते हुए सुना-दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता।यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा।उसने संत से इसका मर्म जानना चाहा।संत ने कहा-ठीक है, तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।उसने ऐसा ही किया।संत ने फैला दिया कि उसे बाघ खा गया।परिवार वाले कई दिनों तक शोक संतप्त रहे।आखिरकार गांव वाले उनकी मदद के लिए आगे आए।एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहाँ नोकरी दे दी।गांव वालों ने मिलकर बड़ी लड़की की शादी कर दी।एक व्यक्ति छोटे लड़के की पढ़ाई का व्यय देने के लिए तैयार हो गया।एक महीने बाद मुखिया छिपता छिपाता रात के वक़्त अपने घर आया।घर वालों ने भूत समझकर दरवाज़ा नहीं खोला।जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और सारी बातें बताई तो पत्नी ने दरवाज़े के अंदर से ही कहा-हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है।अब हम पहले से ज़्यादा सुखी हैं।उस व्यक्ति का अभिमान चूर चूर हो गया।जगत को चलाने का गर्व करने वाले बड़े बड़े सम्राट मिट्टी हो गए, जगत उनके बिना भी चला है।इसलिए अपने धन, बल, ज्ञान और कार्यों का गर्व व्यर्थ है।इसे कर्तव्य व प्रभु की सेवा समझकर ही करना चाहिए।
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