मन की संतुष्टि

विशाल सरीन

 

आजकल की भागदौड़ की जिंदगी में किसी के पास समय नहीं है। एक चीज मिलती है तो दूसरी पाने की दौड़ शुरू हो जाती है। और दूसरी मिलने पर किसी और चीज की इच्छा पूर्ति के प्रयास शुरू हो जाते हैं। एक तरह से अच्छा भी है कि इंसान मेहनत करता है और तरक्की की तरफ अग्रसर रहता है। ऊंचा से ऊंचा मुकाम पाने की ख्वाहिश में लगा रहता है।

परन्तु जो पाया है उसका आनंद भी मानना चाहिए और अपनी सफलता में supportive लोगों का धन्यवाद भी करना चाहिए। ऐसे नहीं की ऊंचे मुकाम पाने में अपने अपनों को पीछे छोड़ते जाओ और निश्चित मुकाम पर पहुंचने पर खुद को अपनों से दूर पाओ। ऐसे समय पर मुकाम बड़ा बेमाना सा लगता है और अपने बीते समय को सोचकर इंसान खुद को बहुत अकेला पाता है।  

हर किसी के लिए संतुष्टि की परिभाषा अलग है किसी को नाम कमाना है तो किसी को पैसा। किसी को बहुत कुछ इकट्ठा करने पर खुशी मिलती है तो किसी को दूसरों के साथ बांटकर। किसी को बैठे-बिठाए खाने में मजा है तो किसी को दूसरों के लिए बनाने और खिलाने में आनंद मिलता है। किसी को होता है कि मेरा सब काम बैठे-बिठाए हो जाए तो कोई दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहता है। किसी को बढ़िया पढ़कर तो किसी को अच्छा खेल प्रदर्शन करने से संतुष्टि मिलती है। किसी को अपनों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है, तो कोई प्रभु के चरणों में आनंदित होता है।

अध्यापिका सोनिया किसी काम से अपनी गाड़ी से जा रही थी। अचानक उसने देखा कि आगे की गाड़ियां किसी एक जगह से थोड़ा तिरछा होकर निकल रही थी। उसको थोड़ा अचरज हुआ और थोड़ा सतर्क होकर गाड़ी चलाने लगी। उस जगह पहुँचने पर अध्यापिका सोनिया ने भी दूसरी गाड़ियों का अनुसरण करते हुए, अपनी गाड़ी थोड़ा हटकर निकाली।

वहां से निकलते हुए देखा कि किसी गाड़ी के बम्पर का एक भाग गिरा हुआ था जिससे हर कोई बच कर निकल रहा था। निकलने के बाद उसके मन में जैसे एक ग्लानि थी, कि क्यों नहीं उसको उठाकर सड़क के एक तरफ रख दिया। कम से कम दूसरी आती हुई गाड़ियों को कोई दिक्कत ना होती। और अगर कोई उससे टकरा गया तो किसी को चोट भी लग सकती है।

अंततः कुछ पल बाद फिर से अध्यापिका सोनिया का उसी सड़क से आना हुआ। उसकी नजरें उस जगह को ढूंढ रही थी जहां गाड़ी का वह भाग गिरा हुआ था। जैसे ही उसकी निगाह वहां पड़ी, उसने सतर्कता से अपनी गाड़ी को एक तरफ खड़ा किया। सावधानी से चलते हुए गाड़ी के उस भाग को उठाया और ऐसी जगह रख दिया जिससे किसी को कोई दिक्कत ना हो। उसके बाद अपनी गाड़ी में बैठ कर अपने रास्ते चल दिए।

इसके बाद उसके मन की वह ग्लानि एक संतुष्टि में बदल चुकी थी। मन हल्का हो गया था कि अब सब लोग आराम से यहां से निकल पाएंगे। किसी को संतुष्टि, किस काम से मिल जाए, यह उसके मन की दशा पर निर्भर करता है। परन्तु अपने लिए कुछ करने पर तो सब खुश होते है, लेकिन जो कार्य सार्वजनिक हित में किया जाए उसकी बात ही कुछ और होती है। कुछ लोग इसको परोपकार भी कहते है।

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