माया
सुरेश तलरेजा
माया का अर्थ केवल धन से नहीं होता बल्कि जिस चीज में हमारा मन अटकता है, वही हमारे लिए माया है। मन में माया के आते ही हमारी ऊर्जा बाहर की तरफ बहने लगती है, जिससे आत्मा का ज्ञान नष्ट हो जाता है और व्यक्ति संसार में बंधने वाले दुष्ट कर्म करने लगता है जिससे मनुष्य आवागमन के चक्कर में फंस जाता है। माया दो अक्षरों से बनी है। केवल माया से जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती, उसके पीछे अधिष्ठान भी चाहिए। वह अधिष्ठान ईश्वर है। जीवात्मा स्वरूपतः ब्रह्म है, किंतु माया के प्रभाव से वह स्वयं को ब्रह्म से अलग मानता है।माया के कारण भ्रम और मति भर्म उत्पन्न होता है । भ्रम में ज्ञान का विषय विद्यमान है परंतु वास्तविक रूप में दिखाता नहीं, मतिभ्रम में बाहर कुछ होता ही नही, हम कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेते हैं। हम में से हर एक कभी न कभी भ्रम या मतिभ्रम का शिकार होना पड़ता है, जिससे संशय होता हैं। सरल रूप में "आवे जावे सो माया"। भगवान ने माया रची है और मनुष्य उस मायाजाल में फंसा हुआ है। इस दुनियां में जितनी भी वस्तुएं है सारी अस्थायी है। माया महाठगिनी है।कोई पुत्र मोह में कोई धन के मोह में कोई सुंदरता के मोह में फंसा है।सब जानते है अंत समय मे न पुत्र न जमीन न मकान न दुकान न सगे सम्बन्धी न धन दौलत साथ चलते है अंतिम सत्य तो केवल मृत्यु है फिर भी हम मोहमाया में अंधे हो रहे हैं। दुखी हो रहे हैं। दुसरो के सुख को देखकर दुखी होते हैं।
मोह-माया स्वार्थ व अहंकार व्यक्ति को दुख की ओर ले जाते हैं मोह माया में कुछ दिन के लिए सुख आता है लेकिन पूरी जिंदगी दुख में डूब जाती है।सुख शांति से जीना है और शरीर का कल्याण करना है। माया मोह में उलझा व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है। हमें सब प्रकार की इच्छा का त्याग कर एक परमात्मा की प्राप्ति के लिए निस्वार्थ भाव से ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। नहीं तो मोह रूपी दलदल का तो कोई अंत नहीं है। इस दलदल से कोई बाहर नहीं निकल सकता।
कबीर ने कहा था कि जैसे पंख होते हुए भी चतुर तोता पिंजरे में फंस जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी मोह माया के चक्र में फंसा रहता है।जबकि उसकी बुद्धि में ये बात पहले से ही विद्यमान है कि ये संसार मिथ्या है। कृष्ण रूपी परमात्मा को पाने के लिए जब मीरा रूपी जीवात्मा बेचैन हो जाती है तो उसे मोक्ष मिल ही जाता है।
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