आप तो दे दोगे, पर मैं लूंगा कैसे ?
श्याम नाडगोंडे
एक किस्सा और है, उसी यात्रा के दौरान शरद जोशी जी के स्वयं के मुँह से सुनने का सौभाग्य मिला। उनका अंदाज, आप सब गवाह हैं, निराला था विलक्षण था, मैं उसकी एक झलक दिखा सकूँ तो भी मेरे लिए बहुत है। उन्ही के शब्दों में सुनने का प्रयास है…
एक बार एक बड़े नामी गिरामी फिल्म निर्माता मेरे पास आये। वो एक फिल्म की पटकथा लिखवाना चाहते थे । उन्होंने ५००० रुपये पारिश्रमिक देने का वादा भी किया। बड़े निर्माता थे, काम भी मेरी पसंद का था और सबसे बड़ी बात, रकम भी अच्छी थी। पर मेरी चिंता दूसरी ही थी । मैंने उन महाशय से पूछा, आप तो यह पैसे दे दोगे, पर मैं लूंगा कैसे?
एक बार तो वह इसका अर्थ समझ नहीं पाएँ, मगर शीघ्र ही उन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री का रवैया समझ आया और सिर्फ़ हँस दिए । अक्सर इस लाइन में लोग जो भी कहते हैं उसे वह पूर्णतया पालन नहीं करते । और हमारे जैसे सीधे सादे कलाकार, जो पैसे के लेनदेन को ज्यादा नहीं समझते, हमेशा नुकसान उठाते हैं।
यहाँ भी अंततः यही सिद्ध हुआ । स्क्रिप्ट के पूर्ण होने में एक दिन का विलंब हुआ क्योंकि मेरी तबियत कुछ ख़राब थी, और मुझे ५०० रुपये काटकर 4500 का भुगतान किया गया।
तब से, जब भी कोई फिल्मवाला मुझे कुछ देने का वादा करता हैं, मैं यही कहता हूँ, आप तो दे दोगे, पर मैं लूंगा कैसे ?
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