जीवन
पुरुषोत्तम विधानी
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है-ज़िंदगी सायकल चलाने के जैसी है। संतुलन बनाए रखने के लिए चलते रहना होता है। गांधीजी ने भी स्वीकारा है कि प्रकृति के पास सबकी आवश्यकता पूरी करने के लिए पर्याप्त साधन हैं पर इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं। इस सिद्धांत का पालन करने से सबको संतुष्टि होगी और पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होगा।गांधीजी ने शारीरिक श्रम को हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखा। उन्होंने सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श को जीवन में अपनाया। अपने लिए तो सभी जीते हैं पर दूसरों के लिए वह कितना जिया इसीसे उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है।प्रकृति यही हमें सिखाती है। नदिया न पिए कभी अपना जल, वृक्ष न खाए कभी अपना फल। सूर्य निर्बाध रूप से अपना काम करता रहता है। यदि हम दूसरों को सुखी करने का लक्ष्य लेकर चलें तो हमारा सहयोग करने वाले अनेकानेक लोग होंगे।
महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद का उदाहरण हमारे सामने है। छोटी छोटी सफलताएं हमारे उत्साह को बढ़ाती हैं। जब व्यक्ति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता आ जाती है तो वह लोकमंगल के लिए, परमार्थ प्रयोजन के लिए, समाज में फैले अज्ञान, अनाचार और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए, अपनी सारी क्षमता, प्रतिभा और साधनों का नियोजन हंसते हंसते करने लगता है। साधनों में एक है शरीर, दूसरा है बुद्धि, तीसरा है धन।सबसे बड़ा साधन है समय।शरीर अस्वस्थ हो जाए तो पुनः स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सकता है। बुद्धि कम हो तो अध्ययन, अभ्यास के द्वारा प्राप्त की जा सकती है, बढ़ाई जा सकती है। पुरुषार्थ और बुद्धि के बल पर खोया हुआ धन भी पुनः प्राप्त किया जा सकता है। समय एक ऐसा साधन है जो सबको समान रूप से मिला है। हर एक के दिन में 24 घंटे होते हैं। जो इसका सदुपयोग करता है, सफलता की सीढ़ियां चढ़ता चला जाता है। आलसी और निरुद्देश्य यहाँ वहाँ समय व्यतीत करने वाले के हाथ पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं लगता। अतः कार्य करें, नियमानुसार, व्यवस्थित ढंग से, समय सारिणी बनाकर करें। बच्चों को प्रारंभ से ही इसका महत्व समझाना चाहिए जिससे यह उनकी आदत ही बन जाए। प्रतिकूलताओं और संघर्ष का सृजन इसलिए हुआ है कि उनसे टकराकर मनुष्य अपनी क्षमता और प्रतिभा का विकास कर सके। संघर्ष से प्राप्त सफलता का स्वाद कितना मधुर होता है, पसीने की कमाई से कितना आनंद मिलता है, इसे हम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं।जो व्यक्ति मार्ग में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों का भी धैर्य और दृढ़ता के साथ सामना करता है। शांत और निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है। कभी क्रोध, द्वेष, दूसरों का उपहास, अनादर नहीं करता है।
सत्य आचरण, सदाचारी, संतोषी, शांत, संयत और संयमी होता है, वही धार्मिक व्यक्ति होता है। पूजापाठ या कर्मकांड करना पर्याप्त नहीं है,धर्म इनसे बहुत आगे है। जीवन में सुख, शांति और उल्लास का वातावरण चाहते हैं तो सबके साथ मधुरता का व्यवहार करें।अपनी बात को दृढ़ता से कहते हुए भी मधुरता का आँचल कभी नहीं छोड़ना चाहिए।कठोरता का प्रयोग विवेकपूर्ण ही होना चाहिए।कृष्ण के चरित्र में हर जगह मधुरता और कठोरता का सुंदर समन्वय दिखाई देता है।यदि ध्यानपूर्वक सोचें तो हममें कितनी भी प्रतिभा और क्षमता हो पर दूसरों के सहयोग के बिना कुछ कर पाना प्रायः असंभव ही होता है।मनुष्य की उन्नति का आधार, विवाह, कुटुम्ब, जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि की सकारात्मक भूमिका ही है।अहं की कोई गुंजाइश ही नहीं है।मनुष्य बहुत ही संवेदनशील प्राणी है।प्रतिदिन कुछ क्षण अपना आत्मनिरीक्षण करने से व्यक्ति अपने दोषों को देखने की प्र वृति बना लेता है और उन्हें दूर करने का प्रयास भी करता है। अच्छी पुस्तकें सच्चे मित्र के समान होती हैं।इनसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर के सही दिशा मिलती है। इसे स्वाध्याय कहते हैं।आत्मनिरीक्षण और स्वाध्याय से हमारे चरित्र का गठन होता है जो मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ निधि है। कोई भी इंसान बिना कर्म किए नहीं रह सकता और कर्म होते हैं इच्छा से अर्थात कोई भी इंसान बिना इच्छा के नहीं होता। कोशिश यह होना चाहिए कि हमारी इच्छा, सदिच्छा हो, कुछ सिद्धान्तों पर खरी उतरने वाली हो।जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-“परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।“ इच्छा से विचार बनते हैं, विचार से कर्म, कर्म से आदत फिर संस्कार।कामनाएं पूरी न हों तो क्रोध को जन्म देती हैं, पूरी हो जाएं तो अभिमान को जन्म देती हैं।मनुष्य कामनाओं को पूरी करने के लिए अनीति, अनुचित अन्याय, अनाचार का सहारा लेता है।हम कई बार गलतियां करते हैं पर उनसे सबक सीखकर अपना सुधार कर लें तो अच्छा है। कोई भी शब्द आध्यात्मिकता का वर्णन नहीं कर सकता है। इसकी समझ ज्ञान के ज़रिए नहीं बल्कि अनुभव के ज़रिए आती है।
आध्यात्मिकता को केवल एकांत में ही अनुभव किया जा सकता है। सबसे उत्तम योजना जो हम बना सकते हैं वह यही है कि हम ईश्वर की रज़ा में राज़ी रहें। परमात्मा खुद हमसे सही काम करवाता है और खुद ही काम करने की इच्छा पैदा करता है, फिर काम किए बिना हम रह ही नहीं सकते।कर्म को पूजा समझ, समर्पण भाव से, निष्काम कर्म करें।ईश्वर की सेवा, ईश्वर का काम समझकर कर्म करें। ईश्वर सर्व शक्तिमान हैं। उनके काम में कोई व्यवधान नहीं होता, आशंका नहीं होती, थकावट नहीं होती, मन में उत्साह, शरीर में चुस्ती बनी रहती है।
उपरोक्त बातों का ध्यान रखकर हम अपनी कई दुर्बलताओं, कमजोरियों को दूर कर अपना विकास कर पूर्णता को प्राप्त कर सकते है। पूर्णता की स्थिति में सब प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं ,मनुष्य चिरस्थायी शान्ति का अनुभव करता है और धर्म शास्त्रों में बताए अनुसार जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर अपना लोक परलोक संवार लेता है।
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