महासमर
कृष्ण कुणाल झा
मैं भी इस “महासमर” में “शस्त्र” लिए फिरता हूँ ।
तुणीर “दवात” और तीर “कलम” लिए फिरता हूँ ।
गर्जना “काव्यमय”,लय मधुर संग भरता हूँ ।
कभी जग से तो कभी खुद से ही लड़ता हूँ ।
मैं भी इस “महासमर” में “शस्त्र” लिए फिरता हूँ ।
मैं अनगिनत संख्य-असंख्य में घिरा प्राणी हूँ ।
निकल बाहर,लहरा पर्चम,खुद को देखता सिंघासनी हूँ ।
पर लड़कर ही होना हैं पार यह भी भलिभाँति जानता हूँ ।
कोशिश सतत् हैं मेरा,इसलिए भीड़ को ज्ञान दीप से चीड़ता हूँ ।
मैं भी इस “महासमर” में “शस्त्र” लिए फिरता हूँ ।
सलीका लड़ने का,दो-चार ही दाँव आता हैं ।
पर इसी से कुछ भी इस जग में पाता हूँ ।
कभी शौक तो कभी “समर शेष” को देखकर मैदान में उतरता हूँ ।
गिरता,उठता फिर गिरकर,उठकर लड़ता हूँ ।
मैं भी इस “महासमर” में “शस्त्र” लिए फिरता हूँ ।
कभी रथ तो कभी पैदल हीं मैदान-ए-जंग में उतरता हूँ ।
कभी “रथी” तो कभी “महारथी” से भी लड़ता हूँ ।
काट मस्तक नहीं,जीत दिलों को,प्रत्यक्ष योद्धा की,
पकड़ हाथ आलिंगन को जोरों से खींचता हूँ ।
मैं भी इस “महासमर” में “शस्त्र” लिए फिरता हूँ ।
तुणीर “दवात” और तीर “कलम” लिए फिरता हूँ ।
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