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भक्ति और युक्ति

भक्ति एक अंतर्भाव है, जबकि युक्ति  सोच-समझकर कार्य करने  की   पद्धति  है। इस लेख में सामान्य समझ के लिए  भक्ति और युक्ति  की विवेचना की गयी  है।  

भक्ति, श्रद्धा और  शक्ति की विवेचना जब समग्र रूप से की जाती है तब उस विवेचना में शक्ति  का तात्पर्य प्राकृतिक शक्ति की उपासना से है ।  भक्ति को जब हम परिभाषित करते हैं तब किसी अनन्य भाव की अभिव्यक्ति ही भक्ति बन जाती है। 

भक्ति वास्तव में एक  धार्मिक भाव है  यह भाव देश, काल, परिस्थिति और मान्यताओं के साथ बदलता रहता है, और साथ ही साथ उसकी अभिव्यक्ति भी बदलती रहती है। यही कारण है कि  प्रत्येक  धर्म के हर  सम्प्रदायों  में अलग-अलग स्थान पर भक्ति में विविधता पायी  जाती है। यह भी देखा  गया है कि  एक ही परिवार के हर सदस्य की सामान आस्था के बावजूद भक्ति की सघनता  में अंतर रहता  है, यहाँ तक कि  पति-पत्नी के भक्ति-भावों में भी यह अंतर साफ- साफ   दिखाई देता है  ।  

भक्ति जब  उद्देश्यविहीन  रहती है, अथवा  जब भक्ति किसी उद्देश्य से की  जाये तो उसका भी महत्व बदल जाता है। पौराणिक कथाओं में इसके अनेक उल्लेख है जिसका ज्वलंत उदाहरण प्रह्लाद और हिरणकश्यप (पिता-पुत्र ) की भक्ति है हिरणकश्यप ने भक्ति अजय होने के लिए की थी, परन्तु प्रह्लाद की निःस्वार्थ भक्ति थी

भक्ति एक सरल मार्ग है ।  यह  उन सामान्य लोगों के लिए अनुकरणीय है  जो अपनी मजबूरियों के चलते युक्ति पूर्ण कार्य करने में असमर्थ हैं  ।  परन्तु समाज अथवा प्रजा के उत्थान के लिए किए जाने वाला हर कार्य को युक्ति पूर्ण करना, हर पदस्थ व्यक्ति की  महत्त्वपूर्ण  जिम्मेदारी  है। युक्ति, कर्मयोग में  अन्तर्निहित है।जब भक्ति से जिज्ञासा जुड़ जाती है तो भक्ति का स्वरुप और भी बदल जाता है।  बिना जिज्ञासा से की गयी भक्ति अंध्विश्वास का  रूप ले लेती है, जबकि जिज्ञासा के साथ की गयी भक्ति श्रद्धा में बदल जाती है।  यहाँ जिज्ञासा का तात्पर्य  हैं विश्वास, जो कि भक्ति का आधार है।  जिज्ञासा जब भक्ति मार्ग की पहली सीढ़ी हो तब भक्त उपलब्ध जानकारी का अनुसरण  करने के पहले  उसके बारे में और  अधिक जानकारी प्राप्त करता है और  उस जानकारी  की सत्यता परखने  का प्रयत्न करता है।  इस प्रकार श्रद्धा, भक्ति का उत्कृष्ट रूप है। जिज्ञासा पूर्ण भक्ति का उदाहरण है गौतम बुद्ध की तपस्या ।

युक्ति कभी भी उद्देश्य विहीन नहीं होती है युक्ति किसी योजना को सफल बनाने  के लिए किया गया पूर्वनियोजन  है,  और प्रत्येक योजना का उद्देश्य होता है। इस प्रकार युक्ति समझदारी से किया गया एक बहिर्भाव है।

किसी भी कार्य संपादन के लिए ईमानदारी के साथ कठिन प्रयत्न करना आवश्यक है, परन्तु दो अलग-अलग व्यक्ति किसी एक उद्देश्य के लिए काम करते हों, परन्तु दोनों के परिणाम एक से हों कदापि जरूरी नहीं है ।  इसका कारण है प्रयत्नों की ईमानदारी और सघनता में  अंतर नहीं होने के बावजूद , दोनों की युक्ति में  अंतर ।  सामान्य  तौर पर,  युक्ति प्रयत्नों में  लगने वाले संसाधनों के उपयोग का निर्णय है।  जीवन गतिशील होता है । इसी प्रकार किसी कार्य के संपादन के दौरान परिस्थितियां भी बदलती रहती है । अतः उपलब्ध साधनों का उपयोग किस स्तर , किस परिस्थिति, किस क्रम में और किस प्रकार किया गया है, यह सब मिलकर उस प्रयत्न के परिणाम  को प्रभावित करते हैं 

इस सन्दर्भ में  भारतीय संस्कृति में  रामायण और महाभारत, भक्ति और युक्ति के दो  अलग-अलग उदाहरण है।  रामायण में भक्ति और श्रद्धा की पराकाष्ठा  देखने मिलती है।  भक्ति और श्रद्धा के मार्ग पर चलकर  भगवान् श्री राम ने, विषमतम परिस्थति के बीच, अपने परिवार और प्रजा को संगठित रखने का प्रयास किया  और उन्होंने अमानवीय शक्तियों पर, अपने परिजन एवं प्रजा की  न्यूनतम हानि से, विजय प्राप्त की। इसी कारण  भगवन राम को मर्यादा पुरषोत्तम के रूप में पूजा जाता है और राम-चरित्र को अनुकरणीय कहा जाता है।  

ठीक इसके विपरीत, कौरवों में, अपार  शक्ति के बावजूद भक्ति की कमी को  दर्शाते हुए महर्षि  वेद व्यास ने महाभारत में युक्ति की आवश्यकता को उभारा है ।  श्रीमद-भगवद गीता, महाभारत का अंश है।  इस उप-ग्रन्थ में भगवान् श्री कृष्णा ने भक्ति श्रद्धा और शक्ति को आधार बनाकर युक्ति के महत्व को समझाया है, और   ज्ञान-योग पर चलते हुए कर्म-योग का अर्जुन को पाठ पढ़ाया है ।  

यही कारण है कि  गीता और महाभारत का प्रत्येक उद्धरण विचारणीय है।  इसमें एक ही कृत्य का  अलग-अलग परिस्थिति में  औचित्य बदल जाता है।  यहाँ  औचित्य का सम्बन्ध सत और असत के परिणाम से  होकर उसके दृष्टिकोण से  है।  किसी भी  दृष्टिकोण का औचित्य इस बात पर निर्भर करता है कि, किये जाने वाले कृत्य में  कर्ता  का उद्देश्य स्वार्थ या  वासना सिद्धि है? या, परहित तथा प्रकृति का संरक्षण

 

निष्कर्ष : भक्ति एक सरल मार्ग है ।  यह  उन सामान्य लोगों के लिए अनुकरणीय है  जो अपनी मजबूरियों के चलते युक्ति पूर्ण कार्य करने में असमर्थ हैं   परन्तु समाज अथवा प्रजा के उत्थान के लिए किए जाने वाला हर कार्य को युक्ति पूर्ण करना, हर पदस्थ व्यक्ति की  महत्त्वपूर्ण  जिम्मेदारी  है। युक्ति, कर्मयोग में  अन्तर्निहित है।    

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