गीता – व्यक्ति का व्यक्तित्व समझने तथा उसके परिणाम जानने की कुन्जी

प्रकाश काले

हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलु – आहार, विचार, कर्म, ज्ञान, श्रध्दा आदि, सभी, (गीता मे वर्णित) प्रकृति से उत्पन्न तीन गुणो (सत्व, रज, तम्) से निर्धारित होते है । अतः हमें होने वाली भावनाऐं, (सुख- दुःख, काम, क्रोध, लोभ, घमण्ड, सन्देह, संशय, ईर्ष्या, पाप का भय, निराशा, अकेलापन, इत्यादि ), हमसे होने वाले क्रियाओं (कार्यो), तथा हमारी मनोवृत्तियों के मूल मे हमारे अन्दर उपस्थित “गुण”  ही है । इसके साथ ही इन भावनाओं, क्रियाओं तथा मनोवृत्तियों के कारण होने वाले परिणाम या दुष्परिणाम का भी गीता में वर्णन है । इसी प्रकार उन गुणानुसार ही हमे मिलने वाले सुख-दुःख रुपी फल को भी गीता बताती हैं । इस कारण से  “गुणो”  से बनने (अधीन होने) वाले  हमारे या किसी अन्य के व्यक्तित्व को हम पहचान सकते है, किये जाने वाले कार्यो आदि का हेतु (motive) जान सकते है और विशेष यह कि इससे होने वाले अन्तिम परिणाम या दुष्परिणाम को पूर्व में ही जान सकते हैं । अतः हमें हमारे मे उत्पन्न होने वाले “गुणो” पर सतर्कता पूर्वक नजर रखना है । इसी प्रकार अन्य व्यक्ति से मित्रता या सबंध बनाते समय या उससे पहले, उसमें उपस्थित गुणो का अध्ययन अवश्य कर लेना चाहिये । हमें तमो गुण छोडकर रजो गुण, और रजो गुण छोडकर सत्व गुण अपनाने पर जोर देना चाहिये और अन्ततः तीनो गुणों को, जो किसी न किसी रुप मे हमे बांधते है, छोडकर गुणातीत होने का प्रयत्न करना चाहिये ।

अब हम उपरोक्त बातो को श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता मे दिये गये उपदेशानुसार  ही विस्तार से समझते हैं ।

प्रकृति से गुण होते है, गुणों से क्रियाएं होती हैं - प्रकृति (जिसमे अच्छी क्रियाशीलता हो या व्यापकतम् अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थ जगत हैं) और पुरुष [जीवात्मा (आत्मा) को कपिल मुनि कृत सांख्य शास्त्र में पुरुष कहा गया है]-- दोनों को ही तुम अनादि (जिसका आदि या आरंभ न हो या जो सदा से बना, चला आ रहा हो) समझो और विकारों (Disorder or Aberration) तथा गुणों (निजी विशेषता या निपुणता) को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो । कार्य (Work) और करण (Instruments of sense or action-eye, ear, hand feet etc.) के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु (motive, inspiration) कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन (user) में पुरुष हेतु कहा जाता है । ।।13.20।। इस संसार (वृक्ष) की गुणों-[सत्त्व/Moral, Real, रज /Springing from Passion और तम/ Devilish, Demonic) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषय (Physical World) रूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं । मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल (root) भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं । ।।15.2।। पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवाय और कहीं भी वह ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो । ।।18.40।।

गुणो के कार्य, पहचान व परिणाम- (अतः) सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' - ऐसा मानता है । ।।3.27।। प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम - ये तीनों गुण अविनाशी देही (आत्मा) को देह में बाँध (They limit it to Body) देते हैं । ।।14.5।। उन गुणों में सत्त्व गुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है । वह सुख और ज्ञान की आसक्ति (आकर्षण) से ( देही को) बाँधता है । ।।14.6।। तृष्णा (लालसा, तीव्र इच्छा) और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम राग (संसार के पदार्थ का आकर्षण)  स्वरूप समझो । वह कर्मों की आसक्ति से शरीर धारी को बाँधता है । ।।14.7।। सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला समझो । वह प्रमाद (करने वाले काम को न करना और न करने वाले काम को करना), आलस्य और निद्रा के द्वारा देह धारियों को बाँधता है । ।।14.8।। जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों-(इन्द्रियों और अन्तःकरण-मन बुद्धि व अहंकार)) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्व गुण बढ़ा हुआ है । ।।14.11।। रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा (कामना) - ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं । ।।14.12।। रजोगुण से उत्पन्न हुआ  यह काम (वस्तु, व्यक्ति और क्रिया से सुख चाहना) ही क्रोध  है। यह बहुत खानेवाला और महा पापी है । इस विषय में तू इसको ही वैरी जान । ।।3.37।। तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह -- ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं । ।।14.13।। सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजय करता है । ।।14.9।। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्व गुण, सत्त्व गुण, और तमो गुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्व गुण और रजो गुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। ।।14.10।।

गुणो के विशिष्ट क्षेत्र मे कार्य, पहचान व परिणाम - आहार भी सब को तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ (कर्तव्य कर्म), दान और तप (कष्टो को प्रसन्नता पूर्वक सहना) भी तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मों में भी तीन प्रकार की रुचि होती है । ।।17.7।। आयु, सत्त्व गुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ानेवाले, स्थिर रहनेवाले, हृदय को शक्ति देनेवाले, रसयुक्त तथा चिकने -- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं । ।।17.8।। अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाह कारक आहार अर्थात् भोजन के पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते हैं, जो कि दुःख, शोक और रोगों को देनेवाले हैं । ।।17.9।। जो भोजन अधपका, रस रहित, दुर्गन्धित, बासी और उच्छिष्ट (झूठा) है तथा जो महान अपवित्र भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है । ।।17.10।।

यज्ञ करना कर्तव्य है - इस तरह मन को समाधान करके फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्र विधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है । ।।17.11।। जो यज्ञ फल की इच्छा को लेकर अथवा दम्भ-(दिखावटीपन-) के लिये भी किया जाता है, उसको तुम राजस समझो । ।।17.12।। शास्त्र विधि से हीन, अन्न-दान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं । ।।17.13।। दान देना कर्तव्य है -- ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र (eligible, needy) के प्राप्त होने पर अनुपकारी को ( ऐसे व्यक्ति को जिसने हम पर उपकार न किया हो)  दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है । ।।17.20।। किन्तु जो दान प्रत्युपकार के लिये (उपकार के बदले में) अथवा फल प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर क्लेश पूर्वक (दान करते समय मन को कष्ट हो)  दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है । ।।17.21।। जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञा पूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है । ।।17.22।।  देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना -- यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है । ।।17.14।। उद्वेग न करने वाला, सत्य, प्रिय, हितकारक भाषण तथा स्वाध्याय और अभ्यास करना -- यह वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है । ।।17.15।। मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मनन शीलता, मन का निग्रह और भावों की शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है । ।।17.16।। परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छा रहित मनुष्यों के द्वारा तीन प्रकार-(शरीर, वाणी और मन-) का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं । ।।17.17।। जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दिखाने के भाव से किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित और नाशवान् फल देनेवाला तप राजस कहा गया है । ।।17.18।। जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है । ।।17.19।।

श्रद्धा व त्याग- मनुष्यों की स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा (जिसे हम अपने अनुभव से नही जानते, पर पूर्व के स्वाभाविक संस्कारो से, शास्त्रो से, सन्त महात्माओं से सुनकर पूज्य भाव सहित विश्वास कर लेते हैं) सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी -- ऐसे तीन तरह की ही होती है  । ।।17.2।। सभी मनुष्यों की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप होती है । यह मनुष्य श्रद्धामय है । इसलिये जो जैसी श्रद्धा वाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा -- स्थिति है । ।17.3।। सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेतों और भूतगणों का पूजन करते हैं । ।।17.4।।  हे पार्थ ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन (यज्ञ), दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो,कुछ किया जाय, वह सब 'असत्' -- ऐसा कहा जाता है। उसका फल न यहाँ होता है, न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता । ।।17.28।। यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप - ये तीनों ही कर्म मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं । ।।18.5।। (पूर्वोक्त यज्ञ, दान और तप  ) इन कर्मों को तथा दूसरे भी कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके करना चाहिये -- यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है । ।।18.6।। 'केवल कर्तव्य मात्र करना है' -- ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है । ।।18.9।। जो कुछ कर्म है, वह दुःख रूप ही है -- ऐसा समझकर कोई शारीरिक क्लेश के भय से उसका त्याग कर दे, तो वह राजस त्याग करके भी त्याग के फल को नहीं पाता । ।।18.8।। नियत कर्म का तो त्याग करना उचित नहीं है । उसका मोह पूर्वक त्याग करना तामस कहा गया है । ।।18.7।। कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित -- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के बाद भी होता है; परन्तु कर्मफल का त्याग करने वालों को कहीं भी नहीं होता । ।।18.12।। जो अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह त्यागी, बुद्धिमान, सन्देह रहित और अपने स्वरूप में स्थित है । ।।18.10। । कारण कि देहधारी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है । इसलिये जो कर्म फल का त्यागी है, वही त्यागी है -- ऐसा कहा जाता है । ।।18.11।।

ज्ञान, कर्म तथा कर्ता क्षेत्र मे गुणो के कार्य, पहचान व परिणाम -कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य सिद्धान्त में सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि (Achievement or Realisation of Power)  के लिये ये पाँच कारण (Reason, Motive) बताये गये हैं, इनको तू मेरे से समझ । ।।18.13।। इसमें (कर्मों की सिद्धि में) अधिष्ठान (रहने का स्थान या आधार) तथा कर्ता और अनेक प्रकार के करण एवं विविध प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ (efforts or actions) और वैसे ही पाँचवाँ कारण दैव (संस्कार) है । ।।18.14।। मनुष्य, शरीर वाणी और मन के द्वारा शास्त्र विहित अथवा शास्त्र विरुद्ध जो कुछ भी कर्म आरम्भ करता है, उसके ये (पूर्वोक्त) पाँचों हेतु होते हैं । ।।18.15।। परन्तु ऐसे पाँच हेतुओं के होने पर भी जो उस (कर्मों के) विषय में केवल (शुद्ध) आत्मा को कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है । ।।18.16।। ज्ञान, ज्ञेय (जिसको जाना जाता है) और परिज्ञाता (ज्ञाता अर्थात जानने वाला)-- इन तीनों से कर्म प्रेरणा (inspiration) होती है तथा करण, कर्म और कर्ता - इन तीनों से कर्म संग्रह (storage, accumulation) होता है । ।।18.18।।  गुणसंख्यान (गुणों के सम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना करने वाले) शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान और कर्म तथा कर्ता तीन-तीन प्रकार से ही कहे जाते हैं, उनको भी तुम यथार्थ रूप से सुनो । ।।18.19 ।। जिस ज्ञान के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक समझो । ।।18.20।। परन्तु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में अलग-अलग अनेक भावों को अलग-अलग रूप से जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस समझो । ।।18.21।। किंतु जो (ज्ञान) एक कार्य रूप शरीर में ही सम्पूर्ण के तरह आसक्त है तथा जो युक्ति रहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है । ।।18.22।। जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तृत्वाभिमान से रहित हो तथा फलेच्छा रहित मनुष्य के द्वारा बिना राग-द्वेष के किया हुआ हो, वह सात्त्विक कहा जाता है । ।।18.23।। परन्तु जो कर्म भोगों को चाहने वाले मनुष्य के द्वारा अहंकार अथवा परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजस कहा गया है । ।।18.24।। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर मोह पूर्वक आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है । ।।18.25।। (विवेकी पुरुषों ने) शुभ-कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है । ।।14.16।। जो कर्ता राग रहित, अनहं वादी, धैर्य और उत्साह युक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है । ।।18.26।। जो कर्ता रागी, कर्मफल की इच्छा वाला, लोभी, हिंसा के स्वभाववाला, अशुद्ध और हर्ष शोक से युक्त है, वह राजस कहा गया है । ।।18.27।। जो कर्ता असावधान, अशिक्षित, ऐंठ-अकड़ वाला, जिद्दी, उपकारी का अपकार करने वाला, आलसी, विषादी और दीर्घ सूत्री (कार्य करने मे अधिक समय लने वाला)  है, वह तामस कहा जाता है । ।।18.28।।

बुद्धि और धृति के तीन विभाग- अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति (किसी भी अनुकुल या प्रतिकुल परिस्थिति मे विचलित न होकर अपनी स्थिति मे कायम रहने की शक्ति ) के भी तीन प्रकार के भेद अलग-अलग रूप से सुन, जो कि मेरे द्वारा पूर्ण रूप से कहे जा रहे हैं । ।।18.29।। जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है । ।।18.30।। मनुष्य जिसके द्वारा धर्म और अधर्म को, कर्तव्य और अकर्तव्य को भी ठीक तरह से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है। ।।18.31।। तमो गुण से घिरी हुई जो बुद्धि अधर्म को धर्म और सम्पूर्ण चीजों को उलटा मान लेती है, वह तामसी है । ।।18.32।।  समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है । ।।18.33।। फल की इच्छा वाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा धर्म, काम (भोग) और अर्थ को अत्यन्त आसक्ति पूर्वक धारण करता है, वह धृति राजसी है । ।।18.34।। दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को भी नहीं छोड़ता, वह धृति तामसी है । ।।18.35।।

सुख के तीन विभाग अब तीन प्रकार के सुख को भी तुम मेरे से सुनो। जिसमें अभ्यास ( प्रयत्न ) से रमण होता है और जिससे दुःखों का अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्म विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्ति के कारण) आरम्भ में  विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है । ।।18.36-37।। जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से आरम्भ में अमृत की तरह और परिणाम में विष की तरह होता है, वह सुख राजस कहा गया है । ।।18.38।। निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होनेवाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में अपने को मोहित करने वाला है, वह सुख तामस कहा गया है । ।।18.39।।

गुणो (कर्मो) के आधार पर मनुष्यो का वर्गीकरण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं । ।।18.41।। मन का निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना; धर्म पालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञ विधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना -- ये सब-के-सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं । ।।18.42।। शूर वीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव -- ये सब के सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं । ।।18.43।। खेती करना, गायों की रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करना -- ये सब-के-सब वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं, तथा चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है । ।।18.44।। अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है । ।।3.35।। अपने-अपने कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि-(परमात्मा-)को प्राप्त कर लेता है । ।।18.45।।

गुणातीत-वेद तीनों गुणों के कार्य का ही वर्णन करने वाले है तू तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेम (अप्राप्त कि प्राप्ति व प्राप्त की रक्षा) की चाहना भी मत रख और परमात्मा परायण हो जा । ।।2.45।। (क्योंकि) मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है । जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं । ।।7.14।। गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' --  ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता । ।।3.28।। जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से पर अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । ।।14.19।। देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है । ।।14.20।। प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह -- ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता, और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता । ।।14.22।। जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही (गुणों में) बरत रहे हैं -- इस भाव से जो अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता । ।।14.23।। जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है जो प्रिय-अप्रिय में तथा अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में तथा मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है । ।।14.24-25।।

उपसंहार-उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रकृति से सत्त्व, रज और तम गुण होते है । सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं पर अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' -- ऐसा मानता है ।

कर्म (यज्ञ, दान, तप, त्याग ईत्यादि) करना कर्तव्य है, इस तरह मन को समाधान करके आसक्ति, कर्तृत्वाभिमान तथा  फलेच्छा  रहित,  बिना राग-द्वेष के मनुष्यों द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह सात्त्विक है । सात्त्विक ज्ञान होने पर हम सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को देखते है । सात्त्विक कर्ता राग रहित, अनहं वादी, धैर्य और उत्साह युक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार  होता है । सात्त्विकी बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को जानती है। सात्त्विकी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है । सात्त्विक सुख में अभ्यास ( प्रयत्न ) से रमण होता है, इससे दुःखों का अन्त हो जाता है, पर  यह आरम्भ में  विष की तरह लगता है । सत्त्व गुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है । वह सुख और ज्ञान की आसक्ति (आकर्षण) से ( देही को) बाँधता है ।

रजोगुण तृष्णा और आसक्ति को पैदा करता है यह राग   स्वरूप है । राजस आहार  दुःख, शोक और रोगों को देनेवाले हैं ।  राजस मनुष्य द्वारा, कर्म (यज्ञ, दान, तप, त्याग ईत्यादि)  फल की इच्छा को लेकर अथवा दम्भ-(दिखावटीपन-) क्लेश पूर्वक किया जाता है और इससे उसे अनिश्चित और नाशवान् फल मिलता है । राजस कर्म का फल, दुःख कहा है । राजस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में अलग-अलग अनेक भावों को अलग-अलग रूप से जानता है । राजसी बुद्धि से मनुष्य  धर्म और अधर्म को, कर्तव्य और अकर्तव्य को भी ठीक तरह से नहीं जानता । राजस सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होकर आरम्भ में अमृत की तरह और परिणाम में विष की तरह होता है।

तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है । तामस कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर मोह पूर्वक आरम्भ किया जाता है । तामस कर्ता असावधान, अशिक्षित, ऐंठ-अकड़ वाला, जिद्दी, उपकारी का अपकार करने वाला, आलसी, विषादी और दीर्घ सूत्री होता है । तमो गुण से घिरी हुई जो बुद्धि अधर्म को धर्म और सम्पूर्ण चीजों को उलटा मान लेती है । तामस धृति के कारण मनुष्य निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को भी नहीं छोड़ता । तामस सुख निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होकर  आरम्भ में और परिणाम में मनुष्य को मोहित करता है।

अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है । अपने-अपने कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि-(परमात्मा-)को प्राप्त कर लेता है । विवेकी मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से पर अनुभव करता है वह गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और वह स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता । गुणातीत मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है ।

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