गीता- ज्ञान व ज्ञानयोग

सामान्य विद्यार्थी या शिक्षक, गीता में ज्ञान से सम्बन्धित कहे गए कई उच्च स्तर के तात्विक तथ्य समझ नही पाता । सामान्यतः वे सामान्य शिक्षण के सन्दर्भ मे कहे भी नही गये हैं । फिर भी यदि हम (विद्यार्थी , शिक्षक और पालक) उन तत्वों (Principles- Codes) और ज्ञान के बताये गये महत्व का अध्ययन कर हमारे शैक्षणिक चक्र( education delivery system) मे अपनाऐं तो शिक्षा का स्तर निश्चित रुप से ऊंचा होगा । अतः कहे और लिखे गये शब्दो को उचित सन्दर्भ मे (बदलकर) समझे और प्रासंगिक (relevant) उद्धरण का शिक्षा जगत में उपयोग करें यही इस लेख का उद्येश्य है । विषय गहन है फिर भी भाषा को सरल रखने का प्रय़त्न किया है । सुधी पाठक से धीरज व चिन्तन अपेक्षित है ।

गीता में भगवान् ने उपदेश के आरम्भ में (गीता 2/11 से 30) मनुष्यमात्र के अनुभव-(विवेक-) का वर्णन किया है । यह प्रत्येक जीवमात्र का भी अनुभव है; कारण कि ‘मैं हूँ’-ऐसे अपनी सत्ता-(होने पन) का अनुभव स्थावर (स्थिर)-जंगम (चलित) सभी प्राणियों को है । वृक्ष, पर्वत आदि इसे व्यक्त नहीं कर सकते । पशु-पक्षियों में तो यह प्रत्यक्ष देखने में आता है; जैसे-पशु-पक्षी आपस में लडते हैं तो अपनी सत्ता को लेकर ही लडते हैं । इस अनुभव को ही विवेक या निज ज्ञान कहते हैं । निज के अलावा दूसरे कौन-कौन हैं ? इसे समझना भी बहुत जरूरी है । अपने शरीर के सिवाय दूसरे प्राणी, पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलाने वाले स्थूल – शरीर, सूक्ष्म शरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारण -शरीर (जिसमे माना हुआ ‘अहम्’ है) भी स्वयं से दूसरे ही हैं । यह विवेक  (निज-पर का ) सबमें स्वतः है और भगवत्प्रदत्त है । परन्तु मनुष्य न तो अपने अनुभव (विवेक) की और दृष्टि डालता है और न उसका आदर ही करता है । भगवान् के मत मे शरीर-शरीरी के भेद का विचार करके स्वरुप में स्थित होने को ‘सांख्य’ ( हम ज्ञानयोग नाम से जानते हैं) कहते हैं । ‘सांख्य’ और ‘संन्यास’ पर्यायवाची है, जिसमें कर्मों का स्वरुप से (पूर्ण) त्याग करने की आवश्यकता नही है ।‘कर्मसंन्यास’ (जो अर्जुन समझ रहे थे- गीता 5-01 या 4-34)  भी ‘सांख्य’ का एक अवान्तर भेद है जिसमें कर्मों का स्वरुप से त्याग करना होता है । अतः एक ही सांख्ययोग के दो भेद हैं-एक तो (गीता 4-34) -जिसमे, कर्मो का स्वरुप से त्याग है और दूसरा (गीता 2-11से 30), जिसमे कर्मों का स्वरुप से त्याग नही है ।

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि प्रकृति के अंश हैं (वे स्व नही हैं), इसलिये इनसे होनेवाला ज्ञान प्रकृतिजन्य हैं । शास्त्रों को पढ-सुनकर इन इन्द्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा जो पारमार्थिक ज्ञान होता है वह ज्ञान भी प्रकृतिजन्य ही है । परमात्मतत्व इस प्रकृतिजन्य ज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है । अतः परमात्मतत्व को निज -ज्ञान (स्वयं से होने वाले ज्ञान) से ही जाना जा सकता है । निज -ज्ञान अर्थात विवेक को महत्व देने से ‘मैं कौन हूँ’? ‘मेरा क्या है’? जड और चेतन क्या है ? प्रकृति और परमात्मा क्या है?- यह सब जानने की शक्ति आ जाती है । और यही ज्ञानयोग का उद्येश्य और फल है ।

शास्त्रों  में ज्ञान प्राप्ति के आठ अन्तरंग साधन कहे गये हैं- 1.विवेक, 2.वैराग्य, 3.शमादि षट्सम्पत्ति(शम,दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), 4.मुमुक्षता, 5.श्रवण, 6.मनन, 7.निदिध्यासन और  8.तत्त्वपदार्थ संशोधन । पहला साधन  सत-असत को जानना ‘विवेक’ है । सत-असत को अलग जानकर असत का त्याग करना अथवा संसार से विमुख होना- ‘वैराग्य’ दूसरा साधन है । इसके बाद शमादि षट्सम्पत्ति आती है, मन को इन्द्रियों के विषय से हटाना ‘शम’है, इन्द्रियों को विषय से हटाना ‘दम’है, ईश्वर, शास्त्र आदि पर पूज्यभावपूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना ‘श्रद्धा’है । वृत्तियों का संसार से हट जाना ‘उपरति’है, सरदी-गरमी आदि द्वन्दो को सहना ‘तितिक्षा’ है  और अन्तःकरण में शंकाओं का न रहना ‘समाधान’ है । संसार से छुटने की इच्छा ‘मुमुक्षता’ चौथा साधन है । इसके कारण पदार्थों और कर्मों का स्वरुप से त्याग कर, (गुरु से) शास्त्रों को सुनकर तात्पर्य (अर्थ) का निर्णय करना तथा धारण करना ( आचरण में लाना) ‘श्रवण’ पाचंवा साधन है, जिससे प्रमाणगत संशय दूर हो जाते हैं । परमात्मतत्व का युक्ति-प्रयुक्तियों से चिन्तन करना ‘मनन’ छठा साधन है, जिससे प्रमेयगत संशय दूर हो जाते हैं । (शास्त्र में जो लिखा , प्रमाण है उसका अर्थ सही जाना है इसमे संशय होना प्रमाणगत संशय है । अर्थ तो सही जान लिया मगर शास्त्र में जो लिखा  है उस पर बुद्धि संशय करती है वह प्रमेयगत संशय है ।) संसार की सत्ता को मानना और परमात्मतत्व की सत्ता को न मानना  ‘विपरीत भावना’ कहलाती है, व इस भावना को हटाना ‘निजध्यासन’ सातवां साधन है । प्राकृत पदार्थ मात्र से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय और केवल एक चिन्मयतत्व शेष रह जाय-यह ‘तत्वपदार्थसंशोधन’ आठवां साधन है । सभी साधनो का उद्येश्य है- असत के सम्बन्ध का त्याग। त्याज्य वस्तु (जो अपनी नही हैं) के त्याग का परिणाम तत्वसाक्षात्कार अपने लिये होता है ।

 

पर इन सब में  इस बात  का ध्यान रखें, ज्ञान प्राप्ति में खास बाधा है- (नाशवान) सुख की आसक्ति (गीता 3/37-41) । भोगासक्ति के कारण ही मनुष्य की पारमार्थिक विषय में रुचि नहीं होती और रुचि न होने से ही ज्ञान प्राप्ति बडी कठिन प्रतीत होती है । इसी कारण, जो सुगमता से तत्वप्राप्ति (ज्ञान) चाहता है, उसे कठिनता सहनी पडती है और जो शीघ्रता से तत्वप्राप्ति (ज्ञान) चाहता है उसे विलम्ब सहना पडता है । कारण कि सुगमता और शीघ्रता की इच्छा करने से साधक  (विद्यार्थी) की दृष्टि ‘साधन’ पर न रहकर ‘फल’ (सुख की आसक्ति) पर चली जाती है, जिससे साधन मे उकताहट प्रतीत होती है और साध्य की प्राप्ति में विलम्ब भी होता है । साधक में (ज्ञान प्राप्ति का, learning) उद्देश्य होना चाहिये कामना (फल की इच्छा, Marks)  नहीं । उद्देश्यवाला अन्तःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है । जिसका यह दृढ निश्चय या उद्येश्य है कि चाहे जैसे भी हो मुझे तत्व (ज्ञान) की प्राप्ति होनी ही चाहिए उसकी  दृष्टि सुगमता और शीघ्रता पर नहीं जाती । तत्परता के साथ कार्य मे लगा हुआ मनस्वी व्यक्ति जब अपने उद्येश्य पूर्ति के लिये कमर कसकर लग जाता है तब वह सुख और दुःख की ओर नहीं देखता  ।

इस ज्ञान को कैसे और किस गुरु से प्राप्त करें ? - उस- (तत्त्व ज्ञान-) को (ज्ञानी महापुरुषों के पास जाकर) समझ । उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्व दर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्व ज्ञान का उपदेश देंगे । ।।4.34।। तत्त्व दर्शी का तात्पर्य यह है कि महापुरुष को परमात्मतत्व का अनुभव हो गया हो; और   ज्ञानी का तात्पर्य यह है कि उन्हें वेदों  तथा शास्त्रों का अच्छी तरह ज्ञान हो । ऐसे तत्त्व दर्शी और ज्ञानी महापुरुष के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । अन्तःकरण की शुद्धि के अनुसार ज्ञान के अधिकारी तीन प्रकार के होते हैं-उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ । उत्तम अधिकारी को श्रवण मात्र से तथा मध्यम अधिकारी को श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने से ज्ञान हो जाता है । पर कनिष्ठ अधिकारी तत्व को समझने के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की शंकाएँ किया करता है । उन शंकाओँ का समाधान करने के लिये वेदों  तथा शास्त्रों का ठीक-ठीक ज्ञान होना आवश्यक है ; क्योंकि वहाँ केवल युक्तियों से तत्व को समझाया नहीं जा सकता । अतः यदि गुरु तत्त्व दर्शी हो पर ज्ञानी न हो, तो वह शंकाओँ का समाधान नहीं कर सकेगा । यदि गुरु शास्त्रों का ज्ञाता हो, पर तत्त्व दर्शी न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी, जिससे श्रोता को ज्ञान हो जाये । वह बांतें सुना सकता है, पढा सकता है, पर शिष्य को बोध नहीं करा सकता ।

किसे ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान तथा ज्ञान न होने के परिणाम- 

i)   जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है । ।।4.39।।  श्रद्धा-विश्वास और विवेक की आवश्यकता सभी साधको के लिये हैं । हाँ, कर्मयोग तथा ज्ञानयोग में विवेक की मुख्यता है और भक्तियोग में श्रद्धा-विश्वास की मुख्यता है । आरम्भ मे‘तत्वज्ञान’ है ऐसी श्रद्धा होगी, तभी साधक उसकी प्राप्ति के लिये साधन करेगा।

ii)  विवेकहीन और श्रद्धा रहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है । ।।4.40।। ज्ञान हो तो संशय मिट जाता है-‘ज्ञानसंछिन्नसंशयम्’(गीता 4/41) ज्ञान और श्रद्धा- ये दोनो ही न हों तो संशय नही मिट सकता । इसलिये जिस मनुष्य में न तो ज्ञान (विवेक) है और न श्रद्धा ही है अर्थात् जो न तो खुद जानता है और न दूसरे की बात मानता है, उसका पतन हो जाता है।

ज्ञान की महत्ता –

i)   हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान-(तत्त्वज्ञान-) में समाप्त हो जाते हैं । ।।4.33।। द्रव्यमय यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में क्रिया तथा पदार्थ की मुख्यता है; अतः वह करणसापेक्ष है। ज्ञानयज्ञ मे विवेक-विचार की मुख्यता है; अतः यह करण निरपेक्ष है । इसलिये ज्ञानयज्ञ द्रव्यमय यज्ञ से श्रेष्ठ है  । ज्ञानयज्ञ में सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थो से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् तत्वज्ञान होने पर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नही रहता , क्योंकि एक परमात्मतत्व के सिवाय अन्य सत्ता ही नहीं रहती ।

ii)  अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञान रूपी नौका के द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापसमुद्र से अच्छी तरह तर जायेगा । ।।4.36।। ज्ञानयज्ञ (गीता 4/33) से ही यह ज्ञानरुप नौका प्राप्त होती है । यह ज्ञानयज्ञ आरम्भ से ही ‘विवेक’ को लेकर चलता है और ‘तत्वज्ञान’ मे इसकी पूर्णता हो जाती है । पूर्णता होने पर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता । कारण कि पाप कितने ही क्यों न हो, हैं वे असत ही हैं, जबकि ज्ञान सत है ।  सत् के आगे असत् कैसे टिक सकता है । पाप अपवित्र है जबकि ज्ञान पवित्र है (गीता 4/38) । अपवित्र वस्तु पवित्र वस्तु को कैसे अटका सकती है ।

iii)  इस मनुष्य लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (कर्म योगी) उस तत्त्व ज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है । ।।4.38।। गीता 4-33 से 38 श्लोक तक भगवान् ने ज्ञान की जो प्रशंसा की है, उससे ज्ञानयोग की विशेष महिमा झलकती है; परन्तु वास्तव मे वे यह कहते हैं, जो तत्वज्ञान इतना महान और पवित्र है  तथा जिस ज्ञान को प्राप्त करने का लिये मैं तुझे तत्वदर्शीज्ञानी के पास जाने को कह रहा हुँ (गीता 4/34), उस ज्ञान को तू स्वयं कर्मयोग द्वारा अवश्यमेव प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार ये श्लोक वास्तव में प्रकारान्तर से कर्मयोग की ही विशेषता बताने के लिये है ।

ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर- सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' -- ऐसा मानता है । ।।3.27।।  हे महाबाहो ! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' --  ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता । ।।3.28।। प्रकृति से उत्पन्न गुणों-(सत्व,रज और तम-) का कार्य होने से बुद्धि , अहंकार, मन, पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के पाँच विषय- ये भी प्रकृति के गुण कहे जाते हैं । सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे व्यष्टि, व्यक्तिगत in Micro  या  समष्टि, सामुहिक, in Macro  प्रकृति की हों ) प्रकृति के गुणों द्वारा ही की जाती हैं, स्वरूप के द्वारा नहीं । तत्त्व को जानने वाला सांख्य योगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ,  इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं' -- ऐसा समझकर 'मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ' -- ऐसा माने । ।।5.8 -- 5.9।।  सांख्ययोगी में विवेक-विचार की प्रधानता रहती है , अतः वह ‘प्रकृतिजन्य गुण ही गुणों में बरत रहे हैं’ ऐसा जानकर अपने को उन क्रियायों का कर्ता नही मानता ।  अतः जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और ‘स्वयं’-(आत्मा) को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है (गीता 13/29) । जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीर रूपी पुर (home) में सम्पूर्ण कर्मों का विवेक पूर्वक मन  से त्याग करके (निःसन्देह), न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूप में) स्थित रहता है । ।।5.13।। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्व का नाश करता है । कर्तृत्व का नाश होने पर भोक्तृत्व का नाश स्वतः हो जाता है  । शरीर में स्थित होने पर भी पुरुष (स्वरुप) वस्तुतः न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है । पुरुष तो केवल ‘प्रकृतिस्थ’ होने अर्थात प्रकृति से तादात्म्य मानने के कारण सुख-दुःखों के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है ।

क्रिया और कर्म – इन दोनों में भेद है - क्रिया के साथ जब ‘मैं  कर्ता हूँ’ ऐसा अहंभाव रहता है, तब वह क्रिया  ‘कर्म’ हो जाती है और उसका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित फल मिलता है (गीता 18/12) । परन्तु जहाँ ‘मैं  कर्ता नही हूँ’ ऐसा भाव रहता है, वहां वह क्रिया  ‘कर्म’ नहीं बनती अर्थात फलदायक नहीं होती । तत्वज्ञ महापुरुष के द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते , प्रत्युत केवल क्रियाएँ (चेष्टा मात्र) होती हैं (गीता 3/33) । अतः ज्ञानी महापुरुष प्रकृति के वश में नही होता, बल्कि प्रकृति उसके वश में होती है । कर्मों की फल-जनकता का मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि (भोकृत्व) है  जो ज्ञानी महापुरुष में न होकर उससे मात्र क्रियाएँ (चेष्टा मात्र) होती हैं । हे धनञ्जय ! योग- (समता-) के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयों का नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते । ।।4.41।। जिस कर्म से अपने लिये किसी प्रकार के भी सुखभोग की इच्छा नहीं है, वह क्रियामात्र है कर्म नहीं । इस प्रकार जब क्रिया और पदार्थ से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (जो वास्तव में है) तब यदि ज्ञान के संस्कार हैं तो स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है और यदि भक्ति के संस्कार हैं तो भगवान् मे प्रेम हो जाता है ।

ज्ञानयोग व कर्मयोग के साधनों का तुलनात्मक अध्ययन  -

i)     वास्तव में कर्तृत्व (मैने किया ) और भोक्तृत्व (मै उपभोग करु) ही संसार है । सांख्ययोगी और कर्मयोगी-इन दोनो को ही संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करना है, इसलिये दोनों ही साधको को कर्तृत्व और भोक्तृत्व मिटाने की आवश्यकता रहती है । तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होने से सांख्ययोगी कर्तृत्व मिटाता है । कर्मयोगी दूसरों के हित के लिये ही सब कर्म करके  भोक्तृत्व मिटाता है । यह नियम है कि कर्तृत्व या भोक्तृत्व में से एक का त्याग करने से दूसरे का त्याग स्वतः हो जाता है । इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्व का और कर्मयोगी भोक्तृत्व का त्याग करके संसार से मुक्त होता है ।

ii)    कुछ न कुछ पाने की इच्छा से ही कर्तृत्व होता है । ज्ञानयोग में पहले कर्तृत्वभिमान का त्याग किया जाता है, फिर फलेच्छा का त्याग स्वतः होता है । कर्मयोग में पहले फलेच्छा का त्याग किया जाता है, फिर कर्तृत्वाभिमान का त्याग सुगमता से हो जाता है ।

iii)   कर्मयोगी स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर ( संसार में लगाकर) की एकता क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण  संसार से करता है, जबकि ज्ञानयोगी (अपने को अविनाशी स्वरुप जानकर)  अपनी एकता ब्रम्ह से करता है । इस प्रकार कर्मयोगी जड-तत्व की एकता करता है और ज्ञानयोगी चेतन तत्व की एकता करता है ।

iv)  ज्ञानयोग में अपने विवेक के अनुसार विचार पूर्वक चलने से व कर्मयोग में निष्कामभाव पूर्वक परहितार्थ कर्तव्य कर्म करने से समबुद्धि प्राप्त होती है । 

v)   कर्मयोगी का ‘अहम्’  मैं सेवक हूँ इस भाव के कारण शीघ्र तथा सुगमता-पूर्वक नष्ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगी का ‘अहम्’ ‘मैं मुमुक्षु’ हूँ इस भाव के कारण  साथ रहता है और दूर तक साथ जाता है । ज्ञानयोगी का, अपने हित के लिये साधन करने से, ‘अहम्’ ज्यों का त्यों बना रह सकता है ।

vi)   ज्ञानयोग की मुख्य बात है-संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव करना और कर्मयोग की मुख्य बात है – राग का अभाव करना । केवल असत् के ज्ञान से अर्थात् असत् को असत् जान लेने से ऱाग की निवृत्ति नहीं होती । इसलिये साधक का मुख्य काम होना चाहिये राग का अभाव करना सत्ता का अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधने वाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है , सत्ता मात्र नही ।

vii)   कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है और कुछ न करना ज्ञानयोग है  । कुछ न करने से जिस तत्व की प्राप्ति होती है, उसी तत्व की प्राप्ति कर्तव्य-कर्म करने से हो जाती है । ‘करना’ और ‘न करना ’ तो साधन हैं और इनसे जिस तत्व की प्राप्ति होती है , वह साध्य है ।

viii)  मेरे सत् -स्वरुप में कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना आसक्ति अभाव में पैदा हौती है -ऐसा समझकर असंग हो जाय- यह ज्ञानयोग है । जिन वस्तुओं में साधक को राग है, उन वस्तुओं को दूसरों की सेवा में खर्च कर दे और जिन व्यक्तियों में राग है, उनकी निःस्वार्थभाव से सेवा कर दे – यह कर्मयोग है ।

ix)   ज्ञानयोग और कर्मयोग-इन दोनो साधनों मे से किसी एक साधन की पूर्णता होने पर- जीने की इच्छा (कोई अभाव नही है), मरने का भय (मै शरीर नही हूँ),  पाने का लालच (मेरे लिये कुछ नही है) और करने का राग (मैं कुछ करता हूँ) - ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं ।

x)    अभ्यास से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है । कर्मफल त्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है । ।।12.12।।

ज्ञानयोग व कर्मयोग का आश्रम से कोई सम्बन्ध नहीं है- 

i) जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से  वश में किया हुआ है

ii)  जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है

iii) ऐसा आशा (कामना)रहित कर्म योगी केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता । ।।4.21।।  लोगो में प्रायः ऐसी मान्यता है कि कर्मयोगी गृहस्थ-आश्रम में और ज्ञानयोगी (सांख्ययोगी) संन्यास-आश्रम में रहता है । परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है । जिसे शरीर से अलग (अपनी) सत्ता का स्पष्ट विवेक (ज्ञान) है, वह ज्ञानयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ-आश्रम में हो अथवा संन्यास-आश्रम में । जिसमें इतना विवेक नहीं है पर उपर्युक्त तीन बातों पर निश्चित विश्वास है, वह कर्मयोगी है; चाहे वह गृहस्थ-आश्रम में हो अथवा संन्यास-आश्रम में ।

ज्ञानयोग व भक्तियोग- यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।।4.35।। जिस- (तत्त्व ज्ञान-) का अनुभव करने के बाद तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा, और हे अर्जुन! जिस- (तत्त्व ज्ञान-) से तू सम्पूर्ण प्राणियों को निःशेष भाव से पहले अपने में और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा । ।।4.35।। जगत जीव के अन्तर्गत है, इसलिये साधक पहले जगत् को अपने में देखता है- ‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’, फिर अपने को परमात्मा में देखता है-‘अथो मयि’ । ‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’ मे आत्मज्ञान (ज्ञान) है और ‘अथो मयि’ में परमात्म ज्ञान (विज्ञान) है । आत्मज्ञान में निजानन्द है और परमात्मज्ञान परमानन्द है । लौकिक निष्ठा (कर्मयोग तथा ज्ञानयोग)- से आत्मज्ञान का अनुभव होता है और अलौकिक निष्ठा (भक्तियोग )- से परमात्मज्ञान का अनुभव होता है । सब कुछ भगवान ही हैं- यह समग्र का ज्ञान ‘परमात्मज्ञान’ है । आत्मज्ञान से मुक्ति तो हो जाती है, पर सूक्ष्म अहम् की गन्ध रह जाती है, जिससे दार्शनिकों और उनके दर्शनों में मतभेद रहता है । अगर सूक्ष्म अहम् की गन्ध न हो तो फिर मतभेद कहाँ से आये ? परन्तु परमात्मज्ञान से सूक्ष्म अहम् की गन्ध भी नहीं रहती और उससे पैदा होने वाले सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जब तक ‘आत्मनि’ है, तब तक दार्शनिक मतभेद हैं । जब ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव होने पर सब मतभेद मिट जाते हैं, तब ‘अथो मयि’ हो जाता है ।‘अथो मयि’ में एक परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता नही रहती ।

ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्तियोग को सार –

i)     जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, ऐसे केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म (कर्मफल या पाप)विलीन (नष्ट) हो जाते हैं । ।।4.23।। कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्मो के विलीन होने की बात गीता भर में इसी श्लोक में आयी है, इसलिये यह कर्मयोग का मुख्य श्लोक है । इसी प्रकार (गीता 4/36), (गीता 18/66) क्रमशः ज्ञानयोग व भक्तियोग के मुख्य श्लोक हैं । अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञान रूपी नौका के द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप समुद्र से अच्छी तरह तर जायेगा । ।।4.36।। सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।।।18.66।।

ii)    मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।3.30।। तू विवेकवती बुद्धि (ज्ञानयोग) के द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मेरे अर्पण (भक्तियोग) करके कामना, ममता और संताप-रहित होकर युद्ध रूप कर्तव्य-कर्म (कर्मयोग) को कर । ।।3.30।। इस श्लोक में ‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य’ पदो में भक्तियोग की, ‘अध्यात्मचेतसा’पद में ज्ञानयोग और  ‘निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः’ पदो में कर्मयोग की बात आयी है ।  त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्तियोग)- ये तीनों स्वतःसिद्ध होने से स्वधर्म हैं । स्वधर्म में अभ्यास की जरुरत नहीं है; क्योंकि अभ्यास, शरीर के सम्बन्ध से होता है और शरीर के सम्बन्ध से होने वाला सब परधर्म है ।

उपसंहार:  जिस ज्ञान के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक (उत्तम)  समझो । ।।18.20।। परन्तु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में अलग-अलग अनेक भावों को अलग-अलग रूप से जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस (मध्यम) समझो । ।।18.21।। किंतु जो (ज्ञान) एक कार्य रूप शरीर में ही सम्पूर्ण की तरह आसक्त है तथा जो युक्ति रहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस (ज्ञान) कहा गया है । ।।18.22।।  इस प्रकार हम देखते हैं, ज्ञान प्राप्ति के साधन, गुरु कैसा होना चाहिये, उससे कैसे ज्ञान प्राप्त करे, कौनसा ज्ञान उत्तम है ज्ञान न होने के कारण और परिणाम, इत्यादि विषयों का विस्तृत विवेचन गीता में है ।  इन सिद्धान्तो को अपनी शिक्षण व्यवस्था में अपनाकर हम निश्चित रुप से शिक्षा का स्तर ऊँचा कर सकते हैं ।

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