वक्ता का कहना है....     ध्यान !

(यह आलेख जे कृष्णमूर्ति के दिए गए विचारों पर आधारित है)

मुकेश आनंद

'जो मैं कह रहा हूं वह बहुत आसान है और इस कारण से आप इसे समझ नहीं पाएंगे।' आधुनिक विश्व के महानतम दार्शनिक प्रवक्ता जे कृष्णमूर्ति के यह शब्द उनके व्यक्तित्व और उनकी सोच को प्रतिबिंबित करता है। जे कृष्णमूर्ति को अगर आधुनिक युग का गौतम बुद्ध कहां जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। बुद्ध की तरह कृष्णमूर्ति भी किसी गुरु को पूर्णतया अनुकरण करने के विरोधी हैं। उनका विचार है की पूर्ण शांति स्वयं के प्रयास से ही पाई जा सकती है, किसी गुरु के संदेश या निर्देश पर कभी नहीं। किसी दूसरे के निर्देश पर चलने वाला एक सेकंड हैंड पुरुष होगा, मूल अपनी प्रकृति वाला पुरुष नहीं। जे कृष्णमूर्ति ने अपने सभी विचार अंग्रेजी में व्यक्त किए हैं, ये आलेख उनके विचारों को हिंदी में व्यक्त करने का प्रयास है।

 कृष्णमूर्ति का ध्यान के बारे में जो विचार है वह सबसे सरल, अनूठा और मूल विचार है।

कृष्णमूर्ति कहते हैं की मेडिटेशन के लिए सबसे पहले मस्तिष्क का खाली और शांत होना बहुत जरूरी है। यह जरूरी है कि मस्तिष्क और उसके आसपास की जगह खाली हो। कहने का मतलब यह है कि हमारा मस्तिष्क व्यस्त नहीं होना चाहिए। जैसे एक घरेलू महिला अपने बच्चों में, खाना बनाने में, घर को साफ करने में अत्यंत व्यस्त रहती है या जैसे एक पुरुष अपने जॉब अपनी धन या किसी स्त्री के बारे में पूरी तरह से मानसिक रूप से व्यस्त रहता है या जैसे एक पंडित मंदिर के संचालन साफ-सफाई और पूजा में पूरी तरह व्यस्त रहता है, या एक सिस्टम से मेडिटेट करने वाला शांत रहने में चुप रहने के लिए अपने मस्तिष्क को पूरी तरह व्यस्त रखता है। ऐसी व्यस्तता की स्थिति में ध्यान नहीं हो सकता।

हमें समझना होगा कि हमने अपने जीवन में व्यवस्थाएं बना रखी है और तरह तरह के संबंध बना रखें हैं। लेकिन यह व्यवस्थाएं और संबंध क्षणिक  हैं। इन अवस्थाओं से मुक्त हुए बिना ध्यान नहीं हो सकता है। अगर इस अवस्था में हम ध्यान करते हैं तो सिर्फ भ्रम की स्थिति पैदा होगा। व्यवस्था का मतलब है वह व्यवस्था जो प्रकृति करती और जो स्वाभाविक और स्थाई है।  इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं का उदाहरण है सूर्य का उगना, मौसम का बदलना, हवा का बहना और शरीर की विभिन्न क्रियाएं।

लेकिन ऐसा होता नहीं है कि हम व्यस्त ना रहें। प्रतिदिन की तो बात तो छोड़िए, यहां तक कि हम अपने पुरानी कई साल की समस्याओं से जूझते रहते हैं और भविष्य की योजनाओं से हमारा मस्तिष्क भरा होता है। प्रश्न यह है कि क्या हम इन सब चीजों से खाली हो सकते हैं और हमारे पास इन सब चीजों से मुक्त होने का कोई तरीका है।

एक व्यस्त मस्तिष्क दिग्भ्रमित रहता है और अपनी जिम्मेदारियों पर पूरा ध्यान नहीं दे सकता। सिर्फ एक मुक्त मानस ही सही तरीके से समस्याओं का समाधान कर सकता है।

लेकिन मुक्त होने की कोई नियमित व्यवस्था नहीं हो सकती। क्योंकि अगर व्यवस्थाएं बना दी गईं, तो उन व्यवस्थाओं को चलाना एक व्यस्तता हो जाएगी और मस्तिष्क उसमें व्यस्त हो जाएगा। लेकिन अगर आप देख पाए एक व्यस्त मस्तिष्क कितना बदसूरत है कितना विध्वंसक हो सकता है तो फिर आप एक शांत मस्तिष्क के लिए प्रयास कर सकते हैं और जगह बना सकते हैं।

मस्तिष्क के लिए कोई भी डिस्ट्रैक्शन नहीं होता। डिस्ट्रैक्शन होता ही तब है जब हम उसे जबरदस्ती किसी एक बिंदु पर केंद्रित करने का प्रयास करते हैं।

जब हम किसी भी चीज पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित करते हैं तो फिर ध्यान करने का प्रयास लुप्त हो जाता है। प्रयास करने की जरूरत ही तभी पड़ती है जब हमारा ध्यान भंग हो जाता है।

ध्यान का कोई केंद्र नहीं होना चाहिए। क्योंकि अगर केंद्र होगा तो उसकी सीमा भी होगी परिधि भी होगी और व्यास भी होगा। लेकिन जो ध्यान सीमाओं से मुक्त है वह विराट होता है, समय से परे होता है और स्थाई होता है।

शांति कई तरह की होती है जैसे दो युद्ध के बीच की शांति, पति पत्नी के झगड़े की बीच की शांति। लेकिन हम इस शांति की बात नहीं कर रहे। यह वह शांति है जो स्थाई है।

प्रश्न यह है की इस तरह के शांत मस्तिष्क के गुण क्या हैं? प्रश्न अभी यह नहीं कि इस तरह का मस्तिष्क कैसे पाया जा सकता है।

इस शांत मस्तिष्क के साथ जो मिलता है वह किसी प्रयास से नहीं बल्कि सुंदरता, शांति और पवित्रता से मिलता है। इस शांति का किसी सभ्यता या किसी सिस्टम से कोई लेना-देना नहीं बल्कि यही स्थाई और सुंदर होता है।


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