अंदाज ए बयां

भगवान भी कैसे भेदभाव करता है

समीर लाल ‘समीर’

सरकारी घर मिला हुआ था पिता जी को, पहाड़ के उपर बनी कॉलोनी में- अधिकारियों की कॉलोनी थी- ओहदे की मर्यादा को चिन्हित करती, वरना कितने ही अधिकारी उसमें ऐसे थे कि वे अपने  कर्मों से झोपड़ी में रखने के काबिल भी नहीं थे , रहना तो दूर की बात होती।   मजदूरों और मातहतों का खून चूसना उन्हें उर्जावान बनाता था। 

वो अपने पद के नशे में यह भूल ही चुके थे कि कभी उन्हें सेवानिवृत भी होना है।   खैर, सेवा के नाम पर तो वो यूँ भी कलंक ही थे तो निवृत भला क्या होते लेकिन यह एक परम्परा है, जब साथ सारे अधिकार भी पैकेज डील में जाते रहते हैं।   खुद तो खैर औपचारिक रुप से सेवानिवृत होने के साथ ही शहर में कहीं आकर बस जाते मगर बहुत समय लगता उन्हें, जब वो वाकई उस पहाड़ वाली कॉलोनी से अपनी अधिकारिक मानसिकता उतार पाते।   जिनका जीवन भर खून पी कर जिन्दा रहे, उन्हीं से रक्त दान की आशा करते?   कुछ छोड़ा हो तो दान मिले. खाली खजाने से कोई क्या लुटाये। 

उसी पहाड़ पर उन्हीं अधिकारियों के बच्चे, हम सब भरी दोपहरिया में निकल लकड़ियाँ और झाड़ियाँ बीन कर चट्टानों के बीच छोटी छोटी झोपड़ियाँ बनाते और उसी की छाया में बैठ घर घर खेलते ।   अपने घर से टिफिन में लाया खाना खाते मिल बाँट कर और उस झोपड़ी को अपना खुद का घर होने जैसा अहसासते ।   मालूम तो था कि शाम होने के पहले घर लौट जाना है या अगर ज्यादा गरमी लगी तो शाम से कोई वादा तो है नहीं कि तुम्हारे आने तक रुकेंगे ही, और होता भी तो वादा निभाता कौन है? फिर रात तो गर्मी में कूलर और सर्दी में हीटर में सोकर कटेगी (आखिर अधिकारी के बेटे जो ठहरे) तो झोपड़ी की गर्मी/सर्दी की तकलीफ का कोई अहसास ही नहीं होता।   घर से बना बनाया खाना और बस लगता कि काश इसी में रह जायें। 

वातानुकूलित ड्राईंगरुम में बैठकर गरीबी उन्मूलन पर भाषण देने और शोध करने जैसा आनन्द मिला करता था उन झोपड़ियों में बैठ कर। 

पहाड़ों पर तफरीह के लिए घूमने जाना और पहाड़ों की दुश्वारियों को झेलते हुए पहाड़ों पर जीवन यापन करना दो अलग अलग बातें हैं, दो अलग अलग अहसास जिन्दगी के। 

फिर एक समय में सुना कि हमारे युवराज ऐसे ही कुछ अहसास रहे हैं शासन की बागडोर संभालने के पहले। झोपड़ियों में खाना खा रहे हैं – रात गुजार रहे हैं ।   नए साहब आए वो गरीबों के पैर धो रहे हैं और फिट तौलिए से पोछ रहे हैं ।   सब नौटंकी के नाट हैं।  

काश!! दुश्वारियाँ, परेशानियाँ और दर्द बिना झेले अहसासी जा सकती। 

भरी रसोई में ही उपवास भी धार्मिक कहलाता है, वरना तो फक्कड़ हाली को कौन पूछता है।   न कोई पुण्य मिलता है, न ही पुण्य प्राप्ति की आशा उन दो रोटियों की उम्मीद में। 

भगवान भी कैसे भेदभाव करता है- शौकिया भूखा रहने वालों को पुण्य, और मजबूरीवश भूखा रहने वालों को अगले दिन फिर भूख झेलने की सजा… 

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