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संपादकीय

 ज्ञान के साथ विज्ञान की सरिता का प्रवाह                                                                                                                                                              

अनभ्यासेन विषम विद्या यानि अभ्यास के बिना विद्या पाना बहुत कठिन होता है। अभ्यास की गयी विद्या ही ज्ञान बनती है। जब हम अभ्यास किये गये ज्ञान को एक समीकरण अथवा एक संख्या में व्यक्त करने की ताकत संजो लेते हैं, तब हमारा यही ताकतवर ज्ञान, विज्ञान बन जाता है।

Quote1 अथर्ववेद का उपदेश है: हम सब ज्ञान से युक्त हों, ज्ञान के साथ हमारा कभी वियोग न हो अर्थात् हम अपने ज्ञान को हमेशा याद करते रहें, अभ्यास करते रहें, और उसे शक्तिशाली बनाते रहें।

 एक जिज्ञासु प्रश्न करता हैः ज्ञानी कौन है? वही जिज्ञासु अपने अंदर झांकता है और उत्तर देता है: ज्ञानी वह है जो अपने सीखे ज्ञान का उपयोग करता है। ज्ञानी वह नहीं है जो बहुत सी बातें जानता है, बल्कि ज्ञानी वह है जो काम की बातें जानता है। यही काम की बातें जानना विज्ञान जानना होता है।

विज्ञान के तीन स्तंभ हैः अधिक निरीक्षण करना, अधिक अनुभव करना और अधिक अध्ययन करना। देखा जाये तो वास्तव में यही तीनों ज्ञान की सीढ़ियां भी हैं। अधिक अनुभव करना यानि अपनी सीखी विद्या को परखना, अधिक अध्ययन करना यानि सीखी विद्या का अभ्यास करना और निरीक्षण करना यानि कहीं सीखने में कोई कमी तो नहीं रह गयी, इसका अपने अंदर पता करना।

गाली के उत्तर में मूर्ख गाली दे बैठते हैं और ज्ञानवान अपने मौन से जबाव देते हैं। ठीक इसी प्रकार विज्ञान जहां असफल हो जाता है, वहां शांत हो जाता है, दुबारा प्रयास करता है, और नये तर्क ढूंढ़ कर सफलता पाता है।

Quote2भारतीय मनीषियों की सोच रही है कि हमारे कार्य हमारी सोच तार्किक रहनी चाहिये। इसका मतलब यह है कि अगर कोई कभी पूछ बैठे कि आप यह काम क्यों करते है? अथवा ऐसा ही क्यों करते हैं? या इसी समय क्यों करते हैं? तो हमारे पास इसे सही सिद्ध करने के लिये व्यावहारिक तथ्यों से युक्त कारण अवश्य होने चाहिये।

ज्ञान हमारे शरीर, मन और आत्मा की भूख का एहसास करता है और विज्ञान इसे मिटाने का तरीका ढूंढ़ता है। अगर ज्ञान का अभ्यास नियमित किया जाये तो वह ज्ञान हमारी सोच को निखारता है, बुद्धि को प्रखर बनाता है और हमें नयी खोजों की ओर ले जाता है। वास्तव में ज्ञान के परखने पर ही खोजें संभव होती हैं।

विज्ञान की एक सीमा होती है। विज्ञान जानने योग्य को जानता है। जो अभी वह नहीं जान पा रहा है, उसे देर-सबेर जान लेगा, यह संभव है, लेकिन विज्ञान सबकुछ जान लेगा, यह संभव नहीं है। विज्ञान के जानने की सीमा पदार्थ-ज्ञान तक ही सीमित है। हमें ध्यान रखना होगा कि मनुष्य का अस्तित्व पदार्थ नहीं है। इसलिए विज्ञान के लिए यह अज्ञेय है। विज्ञान इसे पूर्णतया नहीं जान सकता है। मनुष्य को परिभाषित नहीं कर सकता है।

विज्ञान जहां पदार्थ ज्ञान से जुड़ा है, वहीं जीवन अलौकिक ज्ञान से संचरित होता है। जीवन केवल विज्ञान से नहीं चलता है। जीवन में सौन्दर्य भी है और सौन्दर्य पदार्थ नहीं होता है। सौन्दर्य का वैज्ञानिक विवेचन नहीं हो सकता है। उसे देखकर, गाकर, आनंदित तो हुआ जा सकता है, पर उसे पकड़ा नहीं जा सकता है।

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जीवन के आकाश में राजमार्ग नहीं होते हैं। जीवन बंधे हुये व्यवस्थित मार्ग से ही नहीं चलता है। जीवन केवल तर्क से भी नहीं चलता है। ठीक उसी प्रकार, जैसे फूलों का खिलना एक वैज्ञानिक सत्य है लेकिन फूलों का सौन्दर्य विज्ञान की पकड़ से बाहर है। हाइड्रोजन के दो कण जब ऑक्सीजन के एक कण के संपर्क में आते हैं तो पानी बनता है, यह विज्ञान है, लेकिन इस पानी से जीव-जंतुओं की प्यास बुझती है, यह ज्ञान है।

हम जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश को धरती तक पहुंचने में लगभग 499 सेकेंड का समय लगता है, जबकि प्रकाश की गति लगभग 1,86,287 मील यानि 2,99,792 किलोमीटर प्रति सेकंड है। यह तथ्य जानकर एक सामान्य समझ का व्यक्ति भी कह सकता है कि हम सूर्य के प्रकाश को वास्तविक समय में नहीं देख पाते हैं। जब हम किसी वस्तु को वास्तविक समय में देख लें तो उसे परम ज्ञान मान सकते हैं। यह क्षमता अभी विज्ञान ने नहीं अर्जित की है लेकिन यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसका उल्लेख हमारे मनीषियों ने अपने ग्रंथों में पहले ही कर रखा है अर्थात् इसकी जानकारी उनको थी।

 ज्ञान कब विज्ञान बन जाता है, हम इसका एक उदाहरण देते हैं। आदिकाल में भाषा नहीं थी, ध्वनि संकेत थे। ध्वनि संकेतों से मानव समझ जाता था कि कोई व्यक्ति क्या कहना चाहता है। फिर वह उस कथन को समझने के लिये चित्रलिपियों का प्रयोग करने लगा। कालांतर में उसने उन चित्रलिपियों को संकेतों में आड़ी-टेढ़ी रेखाओं या अन्य प्रकार के संकेतों से व्यक्त करना सीखा और इस तरह उसने अपनी लिपि और भाषा का क्रमशः विकास किया।        

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