…क्रमशः

गीता -एक संक्षिप्त परिचय (भाग  2)

प्रकाश काले

सामान्य मनुष्य शायद गीता में   वर्णित  उच्च स्तर के तात्विक विचारों और तथ्यों को  समझ नहीं पायेगा विज्ञान भी अभी तक वहां पहुंचा न होगा लेकिन हम यदि गीता के तत्वों को मान ले और  यह समझ ले की संसार अनिश्चित, परिवर्तनशील और नाशवान है तो हमारे जीवन की अधिकांश चिताएँ और व्यर्थ की दौड धूप खत्म हो जायेगी गीता के उपदेशानुसार  यदि हम जीवन बिता सकें अर्थात मन स्थिर और शरीर क्रियाशील रख सके तो हम हमेशा स्वस्थ रह सकेगें मन का स्थिर होना शरीर रुपी विद्युत यत्रं के लिये  मानो “Voltage Stabilizer” का काम करेगा राग द्वेष इत्यादि षडरिपुओं के कारण मन में और परिणामतः शरीर में उतार चढ़ाव  होते है जिससे शरीर का स्वास्थ्य बिगडता है, उससे हम बच सकेगेंनकारात्मक विचारो से शरीर में विषैले रसायन उत्पन्न होते है, उनके दुष्प्रभाव से भी हम बच सकेगें|

गीता के अध्ययन  द्वारा, युवकों को जीने की कला (सकारात्मकता), वृद्धों को मृत्यु कि कला( अंत समय में ईश्वर चिंतन), अज्ञानियों को ज्ञान , ज्ञानियों को नम्रता, अमीरों को दया और करुणा व गरीबो को  धीरज और श्रद्धा  सीखने को मिलती है बलवान को दिशा , कमजोर को बल, थके हुये को विश्राम व त्रस्त व्यक्ति को सुकून प्राप्त करने के लिये गीता का मनन करना चाहिये स्वप्न देखने वालो को वास्तव का भान, सन्देह करने वालो को आश्वासन तथा व्यवहारिक संसारी लोगों को उचित सलाह गीता  पठन  से प्राप्त होती है घमण्डियो को चेतावनी देने, नम्र लोगों को उन्नति का मार्ग दिखाने, पापियो को मुक्ति देने तथा समस्त  मानव जाति को मार्गदर्शन देने मे गीता सक्षम है  इसलिये सभी को गीता का पठन , अध्ययन, चिंतन , मनन तथा स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये

हम सभी , किसी न किसी रुप मे, किसी न किसी समय अर्जुन की स्थिती मे होते हैं । अतः गीता के उपदेश हम सभी के लिए हैं। गीता का अध्ययन करते समय अर्जुन की जगह स्वंय को रखे।

 

(जिज्ञासा जगाने के उद्देश्य से, निम्न लिखित कोष्ठकों में गीता में वर्णित विषयों का, अध्यायों-श्लोकों के क्रमानुसार संक्षेप में उल्लेख करने का प्रयत्न भर किया हैजिज्ञासु व्यक्ति इच्छित भाग का विस्तृत अध्ययन करें यही विनंति)

भाग-1 से आगे।

1. अध्याय. 2 श्लोक से. 3 श्लोक तक. 4 वर्णित विषय

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0

इस  अध्याय में मुख्य रुप से भगवान की विभुतियो का वर्णन है

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7

सारा ब्रह्मांड ईश्वर द्वारा रचा गया है।  यहां भगवान के योग (सामर्थ्य ) और विभुतियों (श्वर्य) का विस्तृत्व विवरण है । इनको जानने और विश्वास करने का उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को देते है ।

10

8

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भगवान यहां भक्ति के प्रकार और उनके फल समझाते है ।भजन का अर्थ है भगवान के रुप को मूलतः ( तत्व से) जानना तथा उन के गुणो, प्रभावो का गुणगान करना है

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अर्जुन भगवान की स्तुति करते हैं और उनसे उनके योग (सामर्थ्य ) तथा विभुतियों (श्वर्य) को (पुनः) विस्तार से कहने की प्रार्थना करते हैं ।

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42

भगवान पुनः  सक्षेंप मे अपनी विभुतियों ( कुल 82)का वर्णन करते हुए कहते हैं की इन (मेरी) विभूतियों का कोइ अतं नही  है जो जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त -प्राणी तथा पदार्थ - है, उन सबको (तुम) मेरे ही तेज (योग सामर्थ्य ) के अशं से उत्पन्न हु समझो । किन्तु इस सारे विशद ज्ञान की तुम्हें आवश्यकता  नही है। यही याद रखो कि मै  अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूं ।

11

1

8

अर्जुन ने कहा  मेरा मोह नष्ट हो गया है ।(मगर भगवान सतुंष्ट नही हुये है और गीता आगे बढ़ी) और आप जो (अपने बारे मे) कहते हैं वह भी मै सत्य मानता हूं, फिर भी यदि आप सम्भव मानते हो तो मैं वह सब (रुप) देखना चाहता हूं । अर्जुन  की विश्वरुप देखने की इच्छा को भगवान ने मान लिया और देखने के लिये दिव्य चक्षु प्रदान किए ।

11

9

14

संजय (जो स्वयं व्यासजी की कृपा से देख सकते थे) ने धृतराष्ट्र से कहा कि भगवान ने अर्जुन को विश्वरुप (ऐश्वर्य रुप,विराट रुप) दिखाया। फिर उन्होने भगवान के ऐश्वर्य रुप  को देखकर अर्जुन की जो दशा हुई उसका का वर्णन किया है।

11

15

22

अर्जुन  विराट रुप देख रहे है। । वे ऊस विश्वरुप की दिव्यता, प्रभाव और सामर्थ्य देखकर चकित हैं । यहां स्वर्गादि लोक का वर्णन भी किया गया है। इस रुप का न आदि है, न मध्य है और न ही अन्त है । यह सब देखकर  अर्जुन ईश्वर की स्तुति करते हैं ।

11

23

31

विकराल रुप देखकर अर्जुन व्याकुल और भयभीत होते है | वे धीरज व शान्ति खो देते है दोनो तरफ के योद्धाओं का संहार देखकर  (इस विकराल रुप को न जानने से) अर्जुन प्रश्न करते है, आप कौन है ?

11

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भगवान कहते है मै तीनो लोको का नाश करने वाला महाकाल हूं। मेरे द्वारा ये सब पहले ही मारे जा चुके है। तुम केवल निमित्यमात्र बनो और विजयी होकर राज्य भोगो। (अर्जुन के हारने जीतने के संदेह को मिटाकर वे यह भी स्पष्ट करते है कि अर्जुन कर्ता न होकर  केवल निमित्त मात्र है और इश्वर ही कर्ता है)

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46

इन श्लोको मे भयभीत अर्जुन  भगवान की पुनः स्तुति करते हुए यह सब न जानने के कारण अपने द्वारा (कृष्ण के प्रति) किये गये व्यवहार के लिये  क्षमा मागंते है। इस उग्र रुप की जगह पुनः सौम्य रुप दिखाने की प्रार्थना भी करते है।

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51

भगवान इस दुर्लभ दर्शन से भयभीत अर्जुन को अभय और आश्वासन देते हैं। फिर अपना चतुर्भुज रुप दिखाकर पुनः अन्त मे  मनुष्य रुप मे आ जाते हैं । अर्जुन भी भयमुक्त हो जाते है।

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भगवान समझाते है, उपरोक्त रुप (चतुर्भुज/ वास्तविक) केवल अनन्य भक्ति से देखा जा सकता है । मनुष्य को ईश्वर के लिये कर्म करते हुये, सभी पदार्थो में आसक्ति रहित और सभी जीवो के प्रति वैर भाव रहित होकर भक्ति करना चाहिए। (कुछ टीकाओं मे ऐसा द्वि-भुज रुप के लिए कहा गया है)।

12

1

12

अर्जुन   प्रश्न करते हैं , सगुण और निर्गुण भक्ति करने वालो में कौन श्रेष्ठ है ? भगवान  दोनों के भेद बताते हैं । कौनसा मार्ग  कठिन है और  कौनसा सुगम है यह भी समझाते हैं। वे कहते हैं , देहाभिमानियों के लिए अव्यक्त की(निर्गुण की) उपासना  कठीन है,  इसलिये सगुण उपासना उचित है । सगुण-साकार भक्ति करने वाले श्रेष्ठ हैं । भक्ति   (भगवान को पाने) के  चार विकल्प , (1)मन पूर्णतः  भगवान को अर्पण करके या यह सम्भव न हो तो (2) अभ्यास योग द्वारा इश्वर प्राप्ति की सतत ईच्छा करके या यह भी सम्भव न हो तो (3) केवल भगवान के लिये कर्म करके या यह भी सम्भव न हो तो (4) कर्मो के फल की ईच्छा का त्याग (निष्काम कर्म) करके है  विकल्प में अंतिम होने के बावजूद कर्मों के फल की इच्छा का त्याग का विकल्प ही सर्व श्रेष्ठ है

12

13

20

भगवान ने सिद्ध (श्रेष्ठ) भक्त  के (39)लक्षण बताते हुए कहा मेरे  के लिये (वास्तव मे) सगुण या निर्गुण भक्त मे कोई अन्तर नही है ।

13

0

0

(कुछ अन्य टिप्पणीयो मे  यह अध्याय  एक अन्य श्लोक (अर्जुन के प्रश्न) से शुरु होता है, अतः अध्याय के अन्त तक निरंतर एक श्लोक संख्या का अंतर हो सकता है)।12 वे अध्याय मे सगुण साकार उपासना बताई है तो13 वे अध्याय में निर्गुण निराकार उपासना के बारे में समझाया है । यह अध्याय देहाभिमान (12वें अध्याय मे कहे गये) को समाप्त करने के लिये है।   विषय को दो प्रकार से- पहले क्षेत्र -क्षेत्रज्ञ और फिर प्रकृति-पुरुष के अनुसार- समझाया गया है

13

1

6

प्रकृति, बुद्धी, 5महाभुत, अहकांर, 10 इन्द्रिया, मन, 5 इन्द्रिया विषय इस  प्रकार 24 तत्वो तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख , स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति इन  विकारो वाला क्षेत्र (शरीर)  व क्षेत्रज्ञ(शरीर को जानने वाला) के बारे में  संक्षेप में यहां वर्णन है।

13

7

11

शरीर से तादात्म्य (देहाभिमान) मिटाकर तत्वज्ञान प्राप्ति के 20 उपाय तथा उनको प्राप्त व्यक्ति के लक्षण यहां बताएं हैं (ये पहले वर्णित स्थित प्रज्ञ मनुष्य इत्यादि  जैसे ही है)

13

12

18

ज्ञान (12-14) तथा ज्ञेय (ज्ञान से जिसे जाना जाता है ) अर्थात परमात्मा(15-18) के बारे में  यहां समझाया है।

13

19

33

इन श्लोको मे प्रकृति- पुरुष सबंधी ज्ञान,  प्रकृति से सम्बन्ध तोडने के उपाय, जन्म मरण के फेरे से मुक्ति पाने के  विभिन्न उपाय तथा पुरुष का वास्तविक स्वरुप समझाया गया है सभी प्राणी क्षेत्र -क्षेत्रज्ञ (प्रकृति-पुरुष )के संयोग से उत्पन्न होते है। ( पहले , अध्याय 7 श्लोक 6 में , दूसरे प्रकार से अर्थात, सभी प्राणी परा-अपरा प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होते है  ऐसा कहा है)।

13

34

34

इस तरह जो ज्ञान रुपी नेत्रो (ज्ञान चक्षु) से क्षेत्र -क्षेत्रज्ञ के विभाग को तथा कार्य कारण सहित प्रकृति से स्वयं को अलग जानते,मानते, या देखते  है, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते है।

14

0

0

14वें अध्याय की शुरुआत 13वें अध्याय (ज्ञान सहित प्रकृति-पुरुष के विषय) की निरतंरता मे ही होती है । आगे प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुणो का विवरण है । अतं मे गुणातीत पुरुष के लक्षण (या ईश्वर प्राप्ति के उपाय) बताए हैं।

14

1

4

यहां ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष के संयोग से जगत की उत्पत्ति के बारे मे जानकारी दी है।

14

5

20

भगवान प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुणो का विवेचन कर समझाते हैं  कि ये  गुण आत्मा को देह से बाधंते है व तब यह (आत्मा ) जीवात्मा कहलाता है । सत्व, रज व तम गुणो का स्वरुप और आत्मा (देही) को बाधंने का प्रकार बताये है।सत्व गुण देह को सुख और ज्ञान की, रज गुण कर्मो की व तम गुण प्रमाद और निद्रा की आसक्ति से आत्मा (देही) को बाधंते है । देह मे बढ़े हुये गुणो के लक्षण और उनके फल भी यहां बताएं हैं। कर्मो के मूल मे गुण होते है और इसके अलावा कोई कर्ता नही होता ।  गुणो को कर्ता व स्वयं को गुणो से अलग मानना ही महत्वपुर्ण है तीनो गुणो से परे ईश्वर को जो जानता है वही उसे पाता है।

14

21

27

इन श्लोको मे गुणातीत मनुष्य होने का उपाय, उसके लक्षण व फल बताए हैं ।( इसी प्रकार अन्य स्थान पर पहले स्थित-प्रज्ञ, सिद्ध-भक्त आदि का और आगे दैवी-सम्पति युक्त पुरुष के लक्षणो का वर्णन हुआ है वे सभी लक्षण करीब-करीब एक जैसे है।)

15

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0

इस अध्याय मे 5-5 श्लोको के चार प्रकरण है इस प्रकार 1. क्षर (विनाशि ससांर -जिसे यहां वृक्ष कि उपमा दी गई है), 2.अक्षर (जिवात्मा) 3. परमात्मा और 4. पुरुषोत्तम (परमात्मा पुरुषोत्तम हैँ) के प्रभाव व महत्व इनका वर्णन  इस अध्याय में है।

15

1

5

य़ह क्षर ससांर ( अश्वत्थ वृक्ष के समान)  परमेश्वर मूल वाला , वेद जिसके पत्ते कहे गये है, जिसकी योनि रुप शाखायें है,  जैसा दिखता है वैसा नही है | इसे (ससांर- वृक्ष को) विरक्ति या असगं भाव (Non Attachment) रुप शस्त्र द्वारा काटकर मानव को ईश्वर के शरण में जाना चाहिए।

15

6

6

जिस धाम को पाकर कोई लौट कर नहीं आता एवं जो स्वयं-प्रकाशित है उस परमधाम का वर्णन यहां है।

15

7

11

अक्षर जीव (आत्मा) परमात्मा का अंश है मगर वह मन व इन्द्रियों को अपना मान लेता हैजीवात्मा मन का आश्रय लेकर इन्द्रियो से विषयों का सेवन करता है। जीवात्मा का यह स्वरुप जानने न जानने वाले मानवो का वर्णन भी यहां है।

15

12

15

भगवान (परमात्मा) के प्रभाव और स्वरुप का वर्णन (श्लोक 6 सहित) यहां है। यह वर्णन 10 वे अध्याय में वर्णित विभूतियों जैसा ही है

15

16

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पुरुष दो ही प्रकार के हैं - क्षर अक्षर क्षर से अलग व अक्षर से उत्तम पुरुषोत्तम (भगवान) हैइन तीनो को अलग अलग तत्वतः जानकर मनुष्य ज्ञानी व कृतार्थ हो जाता है।

16

0

0

इस अध्याय में दैवी व आसुरी संपति (प्रवृत्ति) वालो का वर्णन है  दैवी  प्रवृत्ति वालो का (स्थित प्रज्ञ, गुणातीत, सिद्ध भक्त इत्यादि का) वर्णन अलग अलग अध्यायों में विस्तार से हो चुका है ।  इसलिए यहाँ  मुख्य रुप से आसुरी प्रवृत्ति का ही वर्णन है गीता के अनुसार, आसुरी प्रवृत्ति वाले शरीर से प्रेम करते है । उनकी जड पदार्थो मे आसक्ति रहती है (इस प्रकार पहले दो कारणो से हम सब आसुर है) वे इस ससांर को श्वर प्रणित नही मानते दैवी  प्रवृत्ति वालो का ध्यान चेतन परमात्मा की तरफ रहता है। आसुरी प्रवृत्ति वालो का ध्यान जड पदार्थो(भोग संग्रह) पर रहता है ।

16

1

5

 दैवी (1-3)व आसुरी (4) प्रवृत्ति वालो का वर्णन है दैवी प्रवृत्ति वाले मुक्त हो जाते हैं।  आसुरी प्रवृत्ति वाले  बन्ध जाते हैं दैवी प्रवृत्ति वालो के प्रमुख- गुण- भय, राग द्वेष का सर्वथा अभाव, सरलता , दयालुता इत्यादि हैं

16

6

15

आसुरी प्रवृत्ति वालो का विस्तार से वर्णन यहां है ।उनमे विवेक नहीं होता । वे मानते हैं कि ससांर केवल स्त्री पुरुष के संयोग से हुआ है । वे अपने सामर्थ्य का उपयोग जगत के विनाश के लिये करते हैं । वे सतत केवल व्यर्थ कामना, व्यर्थ आशा व व्यर्थ धन सचंय का चितंन चिन्ता करते हैं ।  वे स्वंय को  समर्थ मानते  है और अज्ञान से मोहित होते हैं।

16

16

20

आसुरी प्रवृत्ति वाले नाम मात्र (स्वंय को श्रेष्ठ बताने)  के लिये अविधि पूर्वक यज्ञ कर्म करते है वे बार बार जन्म मृत्यु के चक्र में रहकर (ईश्वर को न पाकर )  अधम गति को प्राप्त होते (रहते) हैं

16

21

24

आसुरी प्रवृत्ति वालो के मूल दोष है- काम, क्रोध व लोभ । ईश्वर कहते हैं मनुष्य को इन दोषो से रहित होकर शास्त्र विधि के अनुसार कर्म (कर्तव्य व अकर्तव्य समझकर) करके स्वंय का कल्याण करना चाहिए।

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सोलहवे अध्याय के 23 वे श्लोक मे श्रीकृष्ण ने कहा था  शास्त्रो को न मानकर मनमाने ढंग से कर्म करने वालो को न सिद्धि, न ही सुख मिलता है । अर्जुन यहां पूछते है, शास्त्र जानने वाले कम, पर उसपर श्रद्धा रखने वाले ज्यादा है ,अतः ऐसे लोगो कि क्या स्थिति होगी? यह प्रश्न 17वें अध्याय की शुरवात है । श्रीकृष्ण के  उत्तर से गीता फिर अपने मूल भाव पर आ जाती है और विधि से महत्वपूर्ण भाव है यह यहां कहा गया है । फिर 14वे  अध्याय मे जिन तीन गुणो का वर्णन है उनके अनुसार हर कार्य, उसकी विधि (गुण ) की पहचान और उससे प्राप्त फल (गति) का यहां वर्णन है जो 18 वे अध्याय तक चलता है । विधि आदि कर्मो की पुर्ति के लिये क्या करना चाहिये यह भी बताया गया है । श्रद्धा विषय से शुरु होकर, अश्रद्धा से कोई फल नहीं मिलता यह कहकर अध्याय समाप्त होता है

17

1

6

श्रद्धा के तीनो भेदो (तीन भेद- सात्विक, राजस तथा तामस) और आसुर प्रवृत्तिवालो का वर्णन किया गया है।

17

7

10

आहार के भेद और उनसे प्राप्त फल बताए हैं ।जो भोजन रसमय, स्निग्ध और स्थिर रहने वाला होता है वह सात्विक आहार है उससे आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढती है। कडवा, खट्टा ,लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखा, रुखा और दहकारक राजस आहार है  उससे दुःख, चिन्ता तथा रोग बढते हैं। अधपका, रसहीन, दुर्गन्धयुक्त, बासी, झुठा व अपवित्र तामस आहार कहलाता है। उससे निद्रा, आलस्य व प्रमाद बढ़ता है

17

11

22

 य़हां यज्ञ, तप, दान के तीन भेद बताए हैं । शरीर, वाणी व मन सम्बन्धी तीन प्रकार के तप और प्रत्येक प्रकार के तप के तीन-तीन भेदो (गुणानुसार) का वर्णन भी यहां किया गया है।  

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23

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ऊँ , तत्, सत् इन शब्दो को परमात्मा के लिए प्रयोग कर उनका अर्थ समझाया है। |इसलिये शास्त्र विधि नियत सभी क्रियाये ऊँ ( परमात्मा के नाम) के उच्चारण से व तत् (परमात्मा के लिये ही है) मानकर शुरु होती है वह सत् ( सत्ता और श्रेष्ठ ) है इस भाव में प्रयोग होता हैअश्रद्धा (उपरोक्त सत्य न मानते हुये)  से किये गये सभी कर्म असत् कर्म हैं और उनका कोई फल नहीं मिलता

18

0

0

तृतीय अध्याय के तीसरे श्लोक मे कहा गया है की आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले मनुष्य दो  प्रकार की निष्ठा रखते है। इस अध्याय के प्रारम्भ मे अर्जुन उन निष्ठाओं  (साख्यं व कर्म योग) को तत्व से अलग अलग जानने के लिये के प्रश्न करते  हैं । यह  अन्तिम अध्याय गीता का उपसंहार भी है जहां पहले आयी हुई बातें दोहराई गयी है । कर्म, साख्यं और भक्ति योग का एक ही अध्याय मे वर्णन है। कर्म योग से भक्ति और भगवान की प्राप्ति (46 व 56 वे श्लोक मे) बताई गयी है । सांख्य योग से भक्ति और भगवान कि प्राप्ति (54व 55 वे श्लोक मे)  बताई गयी है । अन्त मे अर्जुन के मोह  (अज्ञान) का नाश (जैसा उन्होंने,11वे अध्याय मे भी कहा था मगर भगवान संतुष्ट नहीं हुये थे और गीता आगे बढ़ी) होकर वे युद्ध के लिये तैयार हो जाते है ।

18

1

12

संन्यास ( सांख्य योग) और त्याग (कर्म योग) के विषय में विद्वानो मे मतभेद हैं । कई विद्वान काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते है तो कुछ विद्वान कर्मफल त्याग को त्याग कहते हैं, कई अन्य विद्वान सभी कर्मों को दोषयुक्त मानकर उनका त्याग  करने को कहते हैं तो कई अन्य विद्वान  यज्ञ, दान और तप रुप  कर्म का त्याग न करने को कहते है (भगवान का भी यही मत है) । फिर यहाँ कर्म योग का वर्णन किया गया है। भगवान त्याग के तीन भेद बताकर कर्मो का सम्पूर्ण  त्याग क्यो नहीं (दूसरे अध्याय में कहे गये कारण के अनुसार ही) करना चाहिए यह बताते हैं।

18

13

40

यहां विचार प्रधान साख्यं योग और कर्मो के पांच उद्येश्य (अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टायें व संस्कार) बताए हैं।  जिसमें कर्ता भाव (मै कर्ता हूँ) नहीं है वह नहीं बंधता यह कहा गया है । इन श्लोको में  ज्ञान , कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति व सुख के तीन-तीन (गुणानुसार) भेद बताए हैं। सृष्टी मे कहीं भी कोई भी सी वस्तु नही है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणो (भेदो) से रहित हो

18

41

48

यहां चतुः वर्ण और उनके स्वाभाविक कर्मो की जानकारी है । भगवान कहते हैं -अपने अपने स्वाभाविक (नियत) कर्म प्रीति पूर्वक करना ही श्वर का पूजन है। ऐसेर्मो से पाप नही लगता है।

18

49

55

यहां ध्यान प्रधान साख्यं योग की जानकारी है जिसके आचरण से भक्ति प्राप्त होती है

18

56

66

इन श्लोको मे शरणागति युक्त भगवद्भक्ति (भक्ति योग) का वर्णन है। मनुष्य हृदय से सम्पूर्ण कर्म भगवान को अर्पण करके, भगवान के परायण होकर, समता का आश्रय लेकर निरन्तर ईश्वर में चित्तवाले हो जायें इसकी प्रेरणा यहां दी गई है।

18

67

78

अन्त मे भगवद् गीता की महिमा का वर्णन है। अर्जुन य़ुद्ध के लिये तैयार हो जाते है। सजंय घोषणा करते हैं- जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और धनुर्धर अर्जुन है वहां  विजय निश्चित है।

 

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