गीता -सार
प्रकाश काले
कौरवों से युद्ध के प्रसंग पर अर्जुन अज्ञान वश, स्वजनों के मोह और युद्ध से पाप (दोष) लगेगा इस भय व सन्देह से कर्तव्य विमुख होकर मैं युद्ध नही करुँगा यह निश्चय करते हैं, यह गीता की पृष्ठभूमि है । इस पर श्रीकृष्ण उपदेश व संवाद रुप मे उनका विचार किस प्रकार गलत है यह समझाते हैं और वर्णोचित कर्तव्य कर्म क्यों करना चाहिये, उसमे मोह क्यों नही होना चाहिये तथा कर्तव्य कर्म किस प्रकार करना चाहिये कि पाप (दोष) न लगे यह गीता की विषय वस्तु है । अर्जुन को उद्येश्य कर कहे गये ये सिद्धान्त सम्पूर्ण मानव जाति के लिये पथ प्रदर्शक हैं । गीता का अठारवाँ अध्याय तथा विशेषकर 45 से 62 तक के श्लोकों को हम गीता का सार कह सकते हैं । इन्ही श्लोकों में उपरोक्त्त उद्येश्य (विषय वस्तु) की पूर्ति के लिये साधन रुप से गीता मे प्रतिपादित कर्मयोग, ज्ञानयोग व भक्तियोग का पुनः एक स्थान पर सक्षेंप में उल्लेख है ।
1. कर्म योग - मनुष्य का जैसा स्वाभाविक स्वभाव (प्रकृति) है, उसमें अगर वह कोई नयी उलझन पैदा न करें, राग द्वेष न करें तो वह स्वभाव (प्रकृति) उसका कल्याण कर देगा । इस प्रकार अपने-अपने कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । अर्थात प्रकृति के द्वारा प्रवाह रूप से अपने आप होने वाले जो स्वाभाविक कर्म हैं, उनका स्वार्थ-त्याग पूर्वक प्रीति और तत्परता से आचरण करें परन्तु कर्मों के प्रवाह के साथ न राग हो, न द्वेष हो और न फलेच्छा हो । राग द्वेष और फलेच्छा से रहित होकर क्रिया करने से कर्म करने का वेग शान्त हो जाता है और कर्म में आसक्ति न होने से नया वेग पैदा नहीं होता । इससे प्रकृति के पदार्थों और क्रियाओं के साथ निर्लिप्तता (असंगतता) आकर प्रकृति की क्रियाओं का प्रवाह स्वाभाविक ही चलता रहता है और उनके साथ अपना कोई सम्बन्ध न रहने से साधक की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है, जो कि प्राणी मात्र की स्वतः स्वाभाविक स्थिति है । परन्तु यह सब होता है कर्मों में अभिरति होने से, आसक्ति होने से नहीं । [अपने स्वाभाविक कर्मों को केवल दूसरों के हित के लिये तत्परता और उत्साहपूर्वक करने से अर्थात् केवल देने के लिये कर्म करने से मन में जो प्रसन्नता होती है, उसका नाम अभिरति है । फल की इच्छा से कुछ करना अर्थात् कुछ पाने के लिये कर्म करना आसक्ति है ।] (सन्दर्भ श्लोक 18.45)
परमात्मा का अपने अपने स्वभावज (वर्णोचित स्वाभाविक) कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिये । मनुष्य के लिये अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जो जो कर्तव्य कर्म बताये गये हैं, उन कर्मो से ही परमात्मा की पूजा हो जाती है । पर इन कर्मों में और उनको करने के करणों, उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिये । ममता होने से वे सभी पूजा सामग्री नहीं रहते । मेरे पास जो कुछ है, वह सब उस सर्वव्यापक परमात्मा का ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है - इस भाव से जो कुछ किया जाये, वह सबका सब परमात्मा का पूजन हो जाता है । ( सन्दर्भ श्लोक 18.46)
अच्छी तरह से अनुष्ठान किये हुए पर-धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है । कारण कि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता । ।।18.47।। मनुष्य अपने को जो मानता है, वह उसका स्वधर्म है । जैसे कोई अपने को विद्यार्थी या अध्यापक मानता है, या इस कार्य में उसकी नियुक्ति हुई है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायगा और उस कार्य को सांगोपांग करना उसका स्वधर्म है । ऐसा अपने स्वधर्म में अगर दूसरों के धर्म की अपेक्षा , गुणों की कमी है, अनुष्ठान करने में कमी रहती है या कठिनता से किया जाता है तो भी अपने स्वधर्म का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ है । स्वधर्म कर्मों को स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से किया जाये तो व्यक्ति को उन कर्मों का दोष (पाप) नहीं लगता । शंका- कसाई के लिये कसाई का कर्म सहज है, स्वभाव नियत है, और अगर उसको कसाई के कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये तो फिर निषिद्ध आचरण कैसे छूटेगा ? इसका समाधान है कि नियत कर्म वह होता है, जिससे किसी का भी अहित न होता हो । अहित करने वाले कर्म आसक्ति, कामना के कारण पैदा होते हैं । कामना के वश में होकर मनुष्य पाप करता है (3। 36- 37) । यदि कसाई का चित्त शुद्ध हो जाय तो वह कसाई आदि का कर्म कर ही नहीं सकेगा । इसलिये मनुष्य को अपना स्वभाव और अपने कर्म शुद्ध, निर्मल बनाने चाहिये ।
दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह किसी-न-किसी दोष (पाप) से युक्त हैं । ।।18.48।। स्वभाव नियत कर्म, सहज कर्म कहलाते हैं जैसे –क्षत्रिय के शौर्य? तेज आदि । सहज कर्म में ये दोष हैं-(1) क्रिया मात्र प्रकृति में होती है और उस क्रिया को मनुष्य अपने (कर्ता) में मान लेता है तो वह परतन्त्र हो जाता है । प्रकृति के परतन्त्र होना ही दोष है । (2) प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ आनुषांगिक अनिवार्य हिंसा आदि दोष होते ही हैं । (3) कोई भी कर्म किया जाये ? वह कर्म किसी के अनुकूल और किसी के प्रतिकूल होता ही है । किसी के प्रतिकूल होना भी दोष है । (4) प्रमाद आदि दोषों के कारण कर्म के करने में कमी रह जाना या विधि में भूल हो जाना भी दोष है । इसका तात्पर्य है कि जैसे ब्राह्मण के सहज कर्म जितने सौम्य हैं, उतने ब्राह्मणेतर वर्णों के कर्म सौम्य नहीं हैं । फिर भी वे दोषी नहीं माने जाते कारण कि वे कर्म उनके स्वभाव के अनुकूल, शास्त्र विहित हैं और उनके करने से लाभ होता है ।
2. ज्ञान योग- इस योग का अधिकारी कैसा होना चाहिये या कौन है- (1) बुद्धि सब जगह आसक्ति रहित हो अर्थात् किसी में भी बुद्धि लिप्त न हो । (2) शरीर पर अधिकार कर लिया हो अर्थात् आलस्य? प्रमाद आदि से शरीर के वशीभूत नहीं हो । यदि वह किसी कार्य को अपने सिद्धान्त पूर्वक करना चाहता है तो उस कार्य में शरीर तत्परता से लग जाता हो और किसी से हटना,चाहता है तो वह वहाँ से हट जाता हो । (3) स्पृहा (जीवन धारण मात्र के लिये चीजों की सूक्ष्म इच्छा )रहित हो । अर्थात अन्तःकरण इतना शुद्ध हो गया हो कि उसके लिये कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहा हो । ज्ञान योग में चलने वाले को जड़ता का त्याग करना पड़ता है और उसमें उपरोक्त तीन बातें आयी हैं । क्रिया मात्र प्रकृति में होती है और जब साधक स्वयं का उस क्रिया के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता तब उसमें जो स्वाभाविक, स्वतःसिद्ध निष्कर्मता - निर्लिप्तता है, वह प्रकट हो जाती है और वह नैष्कर्म्य रूप परमात्म तत्त्व को प्राप्त हो जाता है । या कहें अन्तःकरण की शुद्धि रूप- सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक ही ब्रह्म को प्राप्त होता है । ज्ञान योगी की जो आखिरी स्थिति है, जिससे बढ़कर साधक की कोई स्थिति नहीं हो सकती, वही ज्ञान की परा निष्ठा कही जाती है । (सन्दर्भ श्लोक 18.49. 50)
साधक की बुद्धि विशुद्ध अर्थात् सात्त्विकी (गीता 18। 30) हो । बुद्धि का विवेक साफ हो, उसमें किंचितमात्र भी सन्देह न हो । उस विवेक से वह जड़ता का त्याग करे । साधक वैराग्य के आश्रित रहे अर्थात् जनसमुदाय, स्थान, भोग आदि से उसकी स्वाभाविक ही निर्लिप्तता (एकान्त में रुची हो) बनी रहे । इससे साधन अधिक होगा, मन भगवान में अच्छी तरह लगेगा, अन्तःकरण निर्मल बनेगा- इन बातों को लेकर मन में जो प्रसन्नता होती है, वह साधन में सहायक होती है । साधक का स्वभाव स्वल्प अर्थात् नियमित और सात्त्विक भोजन करने का हो । भोजन के विषय में हित, मित और मेध्य -- ये तीन बातें बतायी गयी हैं । हित -- भोजन शरीर के अनुकूल हो । मित -- भोजन न तो अधिक करे और न कम करे (गीता 6। 16) । मेध्य - भोजन पवित्र हो । सांसारिक प्रलोभन सामने आने पर भी बुद्धि को अपने ध्येय से विचलित न होने देना -- ऐसी दृढ़ सात्त्विकी धृति (गीता 18। 33) के द्वारा इन्द्रियों को मर्यादा में रखे । शरीर , वाणी और मन को संयत (वश में) करना भी साधक के लिये बहुत जरूरी है (गीता 17। 14 -- 16) । अतः वह वृथा न घूमे, वृथा बातचीत न करे, मन से राग पूर्वक संसार का चिन्तन न करे । व्यवहार के समय भी यह ध्यान (भाव) सदा बना रहे कि वास्तव में एक परमात्मा के सिवाय संसार की स्वतंत्र सत्ता ही नहीं (गीता 18। 20) हैं । गुणों को लेकर अपने में जो एक विशेषता दिखती है, उसे अहंकार कहते हैं । मनमानी करने का जो आग्रह (हठ) होता है, उसे बल कहते हैं । जमीन जायदाद आदि बाह्य चीजों की विशेषता को लेकर जो घमंड होता है, उसे दर्प कहते हैं । भोग, पदार्थ तथा अनुकूल परिस्थिति मिल जाये, इस इच्छा का नाम काम है । अपने स्वार्थ और अभिमान में ठेस लगने पर दूसरों का अनिष्ट करने के लिये जो जलन की वृत्ति पैदा होती है, उसको क्रोध कहते हैं । भोग बुद्धि से, सुख आराम बुद्धि से चीजों का जो संग्रह किया जाता है, उसे परिग्रह कहते हैं – इन सबका साधक त्याग करे । अपने पास निर्वाह मात्र की जो वस्तुएँ हैं और कर्म करने के शरीर, इन्द्रियाँ आदि जो साधन हैं, उनमें ममता अर्थात् अपनापन न हो । निर्मम हों (हमें जो पदार्थ व्यक्ति प्रिय लगते है, उनके बने रहने की इच्छा न होना) । जड़ता से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होने और राग द्वेष न रहने से साधक हर दम शान्त रहता है । ममता रहित और शान्त मनुष्य (ज्ञान योग का साधक) परमात्म प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है । (सन्दर्भ श्लोक 18.51-52-53)
ज्ञान योग से भक्ति योग की ओर-जब अन्तःकरण में असत् (विनाश) शील वस्तुओं का महत्त्व मिट जाता है, तब अन्तःकरण की अहंकार, घमंड आदि वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं । फिर अपने पास जो वस्तुएँ हैं, उनमें भी ममता नहीं रहती जिससे सुख और भोग बुद्धि से वस्तुओं का संग्रह नहीं होता । इस प्रकार अन्तःकरण में स्वतः स्वाभाविक ही शान्ति आ जाती है और प्रसन्नता रहती है । उस प्रसन्नता की पहचान यह है कि कितनी ही बड़ी सांसारिक हानि हो जाय, तो भी वह शोक-चिन्ता नहीं करता और अमुक परिस्थिति प्राप्त हो जाये -- ऐसी इच्छा भी नहीं करता । जब साधक हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा रहित हो जाता है, तब परमात्मा के साथ स्वतः स्वाभाविक अभिन्नता (जो कि सदा से ही थी) का अनुभव हो जाता है । इस प्रकार साधक ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बन जाता है । पात्र बनने पर उसकी ब्रह्मभूत अवस्था अपने आप हो जाती है, इसके लिये उसको कुछ करना नहीं पड़ता । इस अवस्था में मैं ब्रह्म स्वरूप हूँ और ब्रह्म मेरा स्वरूप है ऐसा उसको अपनी दृष्टि से अनुभव हो जाता है । इसी अवस्था को यहाँ ( श्लोक 5 - 24 में भी) ब्रह्मभूतः (मूल श्लोक) पद से कहा गया है । ब्रह्मभूत अवस्था हो जाने पर संसार के सम्बन्ध का तो सर्वथा त्याग हो जाता है? पर मैं ब्रह्म हूँ? मैं शान्त हूँ? मैं निर्विकार हूँ? ऐसा सूक्ष्म अहंभाव रह ही जाता है । यह अहंभाव जबतक रहता है, तबतक परिच्छिन्नता और पराधीनता रहती है । पर आगे परमात्मा के साथ अभिन्नता होने से, अपना कोई व्यक्तित्व (व्यक्तित्व उसे कहते हैं, जिसमें मनुष्य अपनी सत्ता अलग मानता है और जिससे बन्धन होता है) न रहने से वह सम्पूर्ण प्राणियों में सम - (गीता 9। 29) हो जाता है । फिर उसका परमात्मा में प्रतिक्षण वर्धमान (बढ़ता हुआ) एक विलक्षण आकर्षण, खिंचाव, अनुराग हो जाता है । उसी को परा भक्ति कहते है । उस भक्ति से परमात्म तत्त्व का वास्तविक बोध हो जाता है । यावान् (मूल श्लोक में) अर्थात् भगवान के समग्र रूप को जानना की वे ही परमात्मा अनेक रूपों, आकृतियों, अनेक शक्तियों को साथ लेकर, अनेक कार्य करने के लिये प्रकट होते हैं, और वे ही अनेक इष्ट देवों के रूप में कहे जाते हैं । परमात्मा एक ही हैं- इसे तत्त्व से जान लेना । ऐसा मुझे तत्त्व से जानकर साधक तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है, मेरे साथ की भिन्नता सर्वथा मिट जाती है । (सन्दर्भ श्लोक 18.54-55)
शरणागत भक्तियोग - साधक में कर्मों का, उनके फल का, पूरा होने अथवा न होने का, किसी घटना, परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति आदि का आश्रय न हो । केवल मेरा ही आश्रय हो । जो सर्वथा मेरा ही आश्रित हो जाता है, अपना स्वतन्त्र कुछ नहीं समझता, ऐसे भक्त को अपने उद्धार के लिये कुछ करना नहीं पड़ता । उसका उद्धार मैं कर देता हूँ (गीता 12। 7), उसको अपने जीवन निर्वाह या साधन सम्बन्धी किसी बात की कमी नहीं रहती सब की मैं पूर्ति कर देता हूँ (गीता 9। 22) - यह मेरा सदा का एक विधान है, जो कि सर्वथा शरण हो जाने वाले हरेक प्राणी को प्राप्त हो सकता है (गीता 9। 30- 32) । जिसने केवल मेरा ही आश्रय ले लिया है, उसका कल्याण मेरी कृपा से हो जायगा । यद्यपि प्राणि मात्र पर भगवान का अपनापन और कृपा सदा सर्वदा स्वतः सिद्ध है, तथापि मनुष्य जब तक संसार का आश्रय लेकर भगवान से विमुख रहता है, तब तक भगवत कृपा उसके लिये फलीभूत नहीं होती, उसके काम में नहीं आती । स्वतः सिद्ध परम पद की प्राप्ति केवल भगवत कृपा से ही होती है । उसी परम पद को भक्ति मार्ग में परमधाम, सत्यलोक, वैकुण्ठलोक, गोलोक, साकेतलोक आदि कहते हैं और ज्ञान मार्ग में विदेह, कैवल्य, मुक्ति, स्वरूप स्थिति आदि कहते हैं । वह परम पद तत्त्व से एक होते हुए भी मार्गों और उपासनाओं का भेद होने से उपासकों की दृष्टि से भिन्न- भिन्न कहा जाता है (गीता 8। 21 14। 27) । (सन्दर्भ श्लोक 18.56)
श्लोक-18.57- में भगवान ने अर्जुन को उद्येश्य कर साधक के लिये चार बातें बतायी हैं -(1) सम्पूर्ण कर्मों को चित्त से मेरे अर्पण कर दे । (2) स्वयं को मेरे अर्पित कर दे । (3) समता का आश्रय लेकर संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर ले । (4) निरन्तर मेरे में चित्त वाला हो जा । चित्त से कर्मों को अर्पित करने का तात्पर्य है कि, चित्त से यह दृढ़ता से मान ले कि मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि और संसार के व्यक्ति, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि सब भगवान के ही हैं । केवल इन वस्तुओं का सदुपयोग करने के लिये ही भगवान ने व्यक्तिगत अधिकार दिया है । इस दिये हुए अधिकार को भी भगवान को अर्पण कर देना है । मत्परः (मूल श्लोक) -- भगवान् ही मेरे परम आश्रय हैं, उनके सिवाय मेरा कुछ नहीं है, मेरे को करना भी कुछ नहीं है, पाना भी कुछ नहीं है, किसी से लेना भी कुछ नहीं है -ऐसा अनन्य भाव हो जाना ही भगवान के परायण होना है । गीता भर में देखा जाय तो समता की बड़ी भारी महिमा है । मनुष्य में एक समता आ गयी तो वह ज्ञानी, ध्यानी, योगी, भक्त आदि सब कुछ बन गया । परन्तु यदि उसमें समता नहीं आयी तो अच्छे अच्छे लक्षण आने पर भी वह पूर्ण नहीं है । यह समता ही भगवान की आराधना है । इसीलिये भगवान् समता का आश्रय लेने के लिये कहते हैं । साधक कोई भी काम धंधा करे, तो उसमें यह एक सावधानी रखे कि अपने चित्त को उस काम धंधे में द्रवित न होने दे, संसार के साथ घुलने मिलने, तदाकार न होने दे । अपने को, चित्त को सर्वथा भगवान के समर्पित कर देने से उस पर भगवान का जो स्वतः स्वाभाविक अधिकार है, वह प्रकट हो जाता है और उसके चित्त में स्वयं भगवान् आकर विराजमान हो जाते हैं ।(सन्दर्भ श्लोक 18.57)
भगवान् कहते हैं कि मेरे में चित्त वाला होने से तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न, बाधा, शोक, दुःख आदि से तर जायेगा, तुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा । अर्थात भक्त अपनी तरफ से उसको जितना समझ में आ जाये उतना पूरी सावधानी के साथ कर ले (जैसा पूर्व श्लोकों मे कहा है), उसके बाद जो कुछ कमी रह जायेगी, वह भगवान की कृपा से पूरी हो जायेगी । भगवत कृपा प्राप्त करने में संसार के साथ किंचित् भी सम्बन्ध मानना और भगवान से विमुख हो जाना - यही बाधा थी । वह बाधा उसने (साधक ने) मिटा दी तो अब पूर्णता की, प्राप्ति भगवत कृपा अपने आप करा देगी । पारमार्थिक साधन में विघ्न बाधाओं के आने की तथा भगवत प्राप्ति में आड़ लगने की सम्भावना रहती है । इसके लिये भगवान् कहते हैं कि मेरा आश्रय लेने वाले के दोनों काम मैं कर दूँगा अर्थात् अपनी कृपा से (1) साधन की सम्पूर्ण विघ्न बाधाओं को भी दूर कर दूँगा और (2) उस साधन के द्वारा अपनी प्राप्ति भी करा दूँगा । परम पद को प्राप्त होने पर किसी प्रकार की विघ्न बाधा सामने आने की सम्भावना ही नहीं रहती । फिर भी यह बात कहने का सन्दर्भ यह है कि अर्जुन के मन में यह भय बैठा था कि युद्ध करने से मुझे पाप लगेगा (गीता 1। 36 - 46) । इन सभी बातों को लेकर और अनेक जन्मों के दोषों को भी लेकर भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि मेरी कृपा से तू सब विघ्नों से, पापों से तर जायेगा । पर यदि अहंकार के कारण मेरी बात नही सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा ।( सन्दर्भ श्लोक 18.58)
अहंकार का आश्रय लेकर तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है; क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तेरे को युद्ध में लगा देगी । ।।18.59।। प्रकृति से ही महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से अहंकार पैदा हुआ है । उस अहंकार का ही एक विकृत अंश है - मैं शरीर हूँ । प्रकृति हर दम क्रियाशील है अतः इस विकृत अहंकार (प्रकृति से उत्पन्न) का आश्रय लेने वाला पुरुष कभी भी क्रिया रहित नहीं हो सकता (गीता 3। 5) । मनुष्य का करना और न करना छूटेगा नहीं । परन्तु जिसने प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है अथवा जो सर्वथा भगवान के शरण हो गया है- उसको कर्म करने के लिये बाध्य नहीं होना पड़ता । दूसरे अध्याय में अर्जुन ने भगवान के शरण होकर शिक्षा की प्रार्थना की (2। 7) पर उसके बाद अर्जुन ने साफ -साफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा (2। 9) । भगवान् मन में सोचते हैं , यह मेरी शरणागति कहाँ रही यह तो अहंकार की शरणागति हो गयी । मेरे शरण होता तो वह क्या करेगा और क्या नहीं करेगा इसकी जिम्मेवारी मेरे पर होती । इसके अलावा मेरे शरणागत होने पर यह प्रकृति भी उसे बाध्य नहीं कर पाती (गीता 7। 14) । यह प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया उसी को बाध्य करती है, जो मेरे शरण नहीं हुआ है (गीता 7। 13) प्रभु के शरणागत होने पर परतन्त्रता लेश मात्र भी नहीं रहती -- यह शरणागति की महिमा है । व्यवसाय अर्थात् निश्चय दो तरह का होता है - वास्तविक और अवास्तविक । परमात्मा के साथ अपना जो नित्य सम्बन्ध है, उसका निश्चय करना (मैं परमात्मा का ही हूँ और मुझे केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है) तो वास्तविक है और प्रकृति के साथ मिलकर प्राकृत पदार्थों का निश्चय करना अवास्तविक है । भगवान् कहते हैं कि तेरा क्षात्र स्वभाव- शूरवीरता, युद्ध में पीठ न दिखाना (गीता 18। 43)- तुझे युद्ध में लगा ही देगा। । अतः धर्ममय युद्ध का अवसर सामने आने पर तू युद्ध किये बिना रह नहीं सकेगा ।
पूर्व जन्म में जैसे कर्म और गुण रहे हैं, इस जन्म में जैसे माता पिता से पैदा हुए हैं, जैसी शिक्षा प्राप्त हुई है और जैसे कर्म किये हैं , उन सब के मिलने से अपनी जो कर्म करने की एक आदत बनी है- उसका नाम स्वभाव, स्वधर्म या स्वभावजन्य स्वकीय कर्म है । स्वभावजन्य क्षात्र प्रकृति से बँधा हुआ तू मोह के कारण जो नहीं करना चाहता, उसको तू परवश होकर करेगा । युद्ध रूप कर्तव्य को न करने का तेरा विचार मूढ़ता पूर्वक किया गया है । तेरा क्षात्र स्वभाव ही तुझे युद्ध में लगा ही देगा परन्तु उसका फल तेरे लिये बन्धनकारक (अच्छा नही) होगा । (साधारण मनुष्य प्रकृति के परवश होते हैं, इसलिये उनका स्वभाव उनको कर्म में लगा ही देता है -गीता 3। 33) । पर शास्त्र अथवा मेरी आज्ञा से कर्मों को करने से, उन कर्मों में जो राग द्वेष हैं, वे मिटते चले जायेंगे, क्योंकि तेरी दृष्टि आज्ञा की तरफ रहेगी, राग द्वेष की तरफ नहीं और फिर वे कर्म कल्याण कारक ही होंगे । मनुष्य अपने वर्णोचित स्वभाव को छोड़ तो नहीं सकता, पर भगवत प्राप्ति का उद्देश्य रखकर उसको राग द्वेष से रहित परम शुद्ध, निर्मल बना सकता है । इस स्वभाव को सुधारने के लिये भगवान ने गीता में दो उपाय बताये हैं --,(1) कर्म योग - मनुष्य के खास शत्रु राग द्वेष ही हैं । अतः राग द्वेष को लेकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये, प्रत्युत शास्त्र की आज्ञा के अनुसार, सिद्धान्त से ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये (गीता 3। 34) इससे स्वभाव शुद्ध होगा । (2) भक्ति योग -- जब मनुष्य स्वयं भगवान के शरण हो जाता है, तब उसके पास अपना करके कुछ नहीं रहता , जिससे उसके स्वभाव में रहनेवाले राग द्वेष मिट कर स्वभाव शुद्ध हो जाता है (गीता 18। 62) । स्वभाव शुद्ध होने से बन्धन का कोई प्रश्न ही नहीं रहता । ( सन्दर्भ श्लोक 18.60)
ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से शरीर रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को भ्रमण कराता रहता है । ।।18.61।। जैसे, विद्युत शक्ति से संचालित रेल पर कोई चढ़ जाता है तो उसको परवशता से उसे रेल के अनुसार ही जाना पड़ता है । ऐसे ही जब तक मनुष्य शरीर रूपी यन्त्र के साथ मैं और मेरे पन का सम्बन्ध रखता है, तब तक ईश्वर उसको उसके स्वभाव के अनुसार संचालित करता रहता है । यहां यह शंका होती है कि जब ईश्वर ही हमें भ्रमण करवाता है तो फिर मनुष्य की स्वतंन्त्रता कहाँ रही ? इसका समाधान इस प्रकार है – जैसे, एक ही बिजली से संचालित होने पर भी किसी यन्त्र में बर्फ जम जाती है और किसी यन्त्र में अग्नि जल जाती है । वैसे ही ईश्वर प्राणी के स्वभाव के अनुसार उसका संचालन करते हैं । इसमें एक बात विशेष ध्यान देने की है कि स्वभाव को सुधारने में और बिगाड़ने में सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं । ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय देश में रहता है -- यह कहने का तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी में सब जगह जल रहने पर भी जहाँ कुआँ होता है, वहीं से जल प्राप्त होता है वैसे ही परमात्मा सब जगह समान रीति से परिपूर्ण होते हुए भी हृदय में प्राप्त होते हैं अर्थात् हृदय सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का विशेष स्थान है ।
पूर्व श्लोको (18.56-57-58) मे भगवान द्वारा विघ्न बाधा हटाने, अपने शरण मे आने आदि की बात कही है, पर यहां पर वही बात वे इश्वर के लिये कहते हैं । इस अध्याय में अन्तर्यामी ईश्वर को सब प्राणियों के हृदय में स्थित बताया है (18। 61)और पंद्रहवें अध्याय में अपने को सब के हृदय में स्थित बताया है (15। 15) । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण दो नहीं हैं, एक ही हैं । वास्तव में भगवान व ईश्वर एक हैं (4। 6), (5। 29), (9। 24) ) । पूर्व श्लोक (18.61) के अनुसार यहां पर भगवान् कहते हैं कि शरीर रूपी यन्त्र के साथ किंचितमात्र भी मैं, मेरा पन का सम्बन्ध न रखकर तू केवल उस ईश्वर की शरण में चला जा । शरण में जाने का अर्थ- मन से उसी परमात्मा का चिन्तन हो, शारीरिक क्रियाओं से उसी का पूजन हो ,और उसके प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल विधान में परम प्रसन्नता हो । ( सन्दर्भ श्लोक 18.62)
अन्त में अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गयी है । मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा पालन करूँगा । ।।18.73।। इस प्रकार वह कर्तव्य रुप युद्ध में भाग लेने का निश्चय करते हैं और विजय श्री पाते हैं । हम सभी उन सिद्धान्तो को अपनी अपनी रुचि के अनुसार (कर्म या ज्ञान या भक्ति योग) अपनाकर, सन्देह रहित होकर अपने अपने वर्णोचित कर्तव्य कर्म (राग-द्वेष रहित) करते हुए, स्वंय को कर्ता (कर्म प्रकृति मे माने) न मानते हुए सब कुछ ईश्वर को अर्पित कर दे । इस प्रकार कर्म करने से हमें भी किसी कार्य का दोष न लगकर ग्लानि नहीं होगी । सभी जीवन रुपी युद्ध मे विजय श्री प्राप्त करें यही ईश्वर से प्रार्थना व शुभेच्छा ।
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